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________________ भगवती सूत्र श. २४ : उ. १ : सू. ६७-७३ -अन्तर्मुहुर्त-अधिक-चार-सागरोपम-इतने काल तक रहते हैं, इतने काल तक गति-आगति करते हैं। (पांचवां गमक : जघन्य और जघन्य) ६८. वही जघन्य काल की स्थिति वाला संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त-संज्ञी -पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीव जघन्य काल की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है-जघन्यतः दस-हजार-वर्ष की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः भी दस-हजार-वर्ष की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है। ६९. भन्ते! वे जीव एक समय में कितने उपपन्न होते हैं? इसी प्रकार वही चतुर्थ गमक अविकल रूप से वक्तव्य है यावत् (भ. २४/६७) काल की अपेक्षा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त-अधिक-दस-हजार-वर्ष, उत्कृष्टतः चार-अन्तर्मुहर्त्त-अधिक-चालीस-हजार-वर्ष–इतने काल तक रहते हैं, इतने काल तक गति-आगति करते हैं। (छट्ठा गमक : जघन्य और उत्कृष्ट) ७०. वही जघन्य काल की स्थिति वाला संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त-संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीव उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न जघन्यतः एक सागरोपम की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः भी एक सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है। ७१. भन्ते! वे जीव एक समय में कितने उपपन्न होते हैं? इसी प्रकार वही चतुर्थ गमक निरवशेष वक्तव्य है यावत् (भ. २४/६७) काल की अपेक्षा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त-अधिक-एक-सागरोपम, उत्कृष्टतः चार-अन्तर्मुहूर्त-अधिक-चार-सागरोपम-इतने काल तक रहते हैं, इतने काल तक गति-आगति करते हैं। (सातवां गमक : उत्कृष्ट और औधिक) ७२. भन्ते! उत्कृष्ट काल की स्थिति वाला संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त-संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीव जो रत्नप्रभा-पृथ्वी में नैरयिक के रूप में उपपन्न होने योग्य है, भन्ते! वह जीव कितने काल की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है? गौतम! जघन्यतः दस हजार वर्ष की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः एक सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है। ७३. भन्ते! वे जीव एक समय में कितने उपपन्न होते हैं? शेष परिमाण से लेकर भवादेशपर्यवसान-(भव की अपेक्षा तक) वही प्रथम गमक ज्ञातव्य है (भ. २४/५८-६२), इतना विशेष है-स्थिति–जघन्यतः कोटि-पूर्व, उत्कृष्टतः भी कोटि-पूर्व। इसी प्रकार अनुबन्ध भी वक्तव्य है, शेष पूर्ववत्। काल की अपेक्षा जघन्यतः दस-हजार-वर्ष-अधिक-कोटि-पूर्व, उत्कृष्टतः चार-कोटि-पूर्व-अधिक-चार-सागरोपम-इतने काल तक रहते हैं, इतने काल तक गति-आगति करते हैं। ७१९
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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