SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र श. १९ : उ. ३ : सू. १६-२४ १६. भंते! वे जीव कहां से उपपन्न होते हैं? क्या नैरयिक से उपपन्न होते हैं? इस प्रकार वक्रांति-पद (पण्णवणा, ६/८०-८५) में पृथ्वीकायिकों के उपपात की भांति वक्तव्य है। १७. भंते! उन जीवों के कितने काल की स्थिति प्रज्ञप्त है? गौतम! जघन्यतः अंतर्मुहुर्त, उत्कृष्टतः बाईस हजार वर्ष । १८. भंते! उन जीवों के कितने समुद्घात प्रज्ञप्त हैं? गौतम! तीन समुद्घात प्रज्ञप्त हैं, जैसे-वेदना-समुद्घात, कषाय-समुद्घात, मारणान्तिक-समुद्घात। १९. भंते! वे जीव मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होकर मरते हैं? असमवहत होकर मरते हैं? गौतम! मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं, असमवहत होकर भी मरते २०. भंते! वे जीव अनंतर-उद्वर्तन कर कहां जाते हैं? कहां उपपन्न होते हैं? __ इस प्रकार वक्रांति-पद (पण्णवणा ६/१०३) की भांति उद्वर्तना की वक्तव्यता। अप्कायिक-आदि-पद २१. भंते! (दो-तीन) यावत् चार-पांच अप्कायिक जीव एकत्र होकर साधारण-शरीर का निर्माण करते हैं, निर्माण कर उसके पश्चात् आहार करते हैं? इस प्रकार जो पृथ्वीकायिक का गम (विकल्प) है, वही कथनीय है, यावत् उद्वर्तन करते हैं। इतना विशेष है-अप्कायिक-जीवों की उत्कृष्ट स्थिति सात हजार वर्ष है। शेष पूर्ववत् । २२. भंते! (दो-तीन) यावत् चार-पांच तैजसकायिक-जीव..........? पृथ्वीकायिक की भांति वक्तव्यता। इतना विशेष है-उपपात, स्थिति, उद्वर्तना की पण्णवणा (६/८६, ४/७२, ६/१०४) की भांति वक्तव्यता, शेष पूर्ववत्। इसी प्रकार वायुकायिक-जीवों की वक्तव्यता, इतना विशेष है-चार समुद्घात प्रज्ञप्त हैं। २३. भंते! (दो-तीन) यावत् चार-पांच वनस्पतिकायिक .........पृच्छा। गौतम! यह अर्थ संगत नहीं है। अनंत वनस्पतिकायिक-जीव एकत्र होकर साधारण-शरीर का निर्माण करते हैं। निर्माण कर उसके पश्चात् आहार करते हैं, उसका परिणमन करते हैं, शरीर का विशिष्ट निर्माण अथवा पोषण करते हैं। शेष तैजसकायिक की भांति वक्तव्यता यावत् उद्वर्तन करते हैं। इतना विशेष है-आहार नियमतः छहों दिशाओं से लेते हैं। स्थिति जघन्यतः अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः भी अंतर्मुहूर्त। शेष पूर्ववत्। स्थावर-जीवों की अवगाहना-अल्पबहुत्व-पद २४. भंते! इन पृथ्वीकायिक-, अप्कायिक-, तैजसकायिक-, वायुकायिक-, वनस्पति-कायिक-जीवों के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक, अपर्याप्तक की जघन्य-उत्कृष्ट अवगाहना में कौन किससे अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक है? ६६१
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy