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________________ श. १९ : उ. ३ : सू. ६-१५ ६. भंते! उन जीवों के कितनी लेश्याएं प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! चार लेश्याएं प्रज्ञप्त हैं, जैसे - कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या, कापोत-लेश्या, तेजो- लेश्या । ७. भंते! क्या वे सम्यग् -दृष्टि हैं ? मिथ्या दृष्टि हैं ? सम्यग् -1 -मिथ्या-दृष्टि हैं ? गौतम! सम्यग्-दृष्टि नहीं हैं, मिथ्या-दृष्टि हैं, सम्यग्-मिथ्या-दृष्टि नहीं हैं। ८. भंते! वे जीव ज्ञानी हैं ? अज्ञानी हैं ? भगवती सूत्र गौतम ! ज्ञानी नहीं हैं, अज्ञानी हैं। नियमतः दो अज्ञान वाले हैं, जैसे -मति - अज्ञानी, श्रुत- अज्ञानी । ९. भंते! वे जीव क्या मनो-योगी हैं ? वचन-योगी हैं ? काय-योगी हैं ? गौतम ! मनो- योगी नहीं हैं, वचन - योगी नहीं हैं, काय-योगी हैं। १०. भंते! वे जीव क्या साकारोपयुक्त होते हैं ? अनाकारोपयुक्त होते हैं ? गौतम ! साकारोपयुक्त होते हैं, अनाकारोपयुक्त भी होते हैं। ११. भंते! वे जीव किस प्रकार का आहार करते हैं? गौतम ! द्रव्यतः अनंत- प्रदेशी द्रव्यों का आहार करते हैं - इस प्रकार पण्णवणा के प्रथम आहार-उद्देशक (२८/३०-३२) की भांति वक्तव्यता यावत् सब आत्म-प्रदेशों से आहार करते हैं । १२. भंते! वे जीव जिसका आहार करते हैं, उसका चय होता है ? जिसका आहार नहीं करते, उसका चय नहीं होता ? जिसका चय होता है, क्या उसके असार पुद्गलों का विसर्जन और सार पुद्गलों का शरीर और इन्द्रिय के रूप में परिणमन होता है ? हां, गौतम! वे जीव जिसका आहार करते हैं, उसका चय होता है, जिसका आहार नहीं करते, उनका चय नहीं होता यावत् शरीर और इंद्रिय के रूप में परिणमन होता है । १३. भंते! क्या उन जीवों के इस प्रकार की संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन होता है कि हम आहार कर रहे हैं ? यह अर्थ संगत नहीं है । किन्तु वे आहार करते हैं । १४. भंते! क्या उन जीवों के इस प्रकार की संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन होता है कि हम इष्ट और अनिष्ट स्पर्श का प्रतिसंवेदन कर रहे हैं ? यह अर्थ संगत नहीं हैं । किन्तु वे प्रतिसंवेदन करते हैं। १५. भंते! क्या वे जीव प्राणातिपात में प्रवृत्त कहलाते हैं, मृषावाद, अदत्तादान यावत् मिथ्या - दर्शन - शल्य में प्रवृत्त कहलाते हैं ? गौतम ! प्राणातिपात में भी प्रवृत्त कहलाते हैं, यावत् मिथ्या दर्शन- शल्य में भी प्रवृत्त कहलाते हैं। वे पृथ्वीकायिक-जीव जिन पृथ्वीकायिक- जीवों की हिंसा में प्रवृत्त होते हैं, उन वध्यमान जीवों को भी ये जीव हमारे वधक हैं इस प्रकार का नानात्व (वध्य-वधक- भाव का भेद) विज्ञात नहीं होता । ६६०
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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