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________________ श. १: उ. १,२ : सू. ४९-५४ - देवलोक में देवरूप में उपपन्न होते हैं । ५०. भन्ते ! उन वानमंतर देवों के देवलोक किस प्रकार के प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! जैसे इस मनुष्य-लोक में सदा पुष्पित (कुसुमिय), बौराया हुआ (माइय), नए पल्लवों (लवइय) और फूलों के गुच्छों से लदा हुआ (थवइय), शाखाओं से घिरा हुआ (गुलुइय), पत्र- गुच्छों से लदा हुआ (गोच्छिय), समश्रेणि में स्थित वृक्षों वाला (जमलिय), युग्म रूप में स्थित वृक्षों वाला (जुवलिय), फूलों और फलों के भार से विनत, प्रणत, सुव्यवस्थित लुम्बी (पिण्डी) और मञ्जरी रूप मुकुट से युक्त, अशोक - वन, सप्तपर्ण (सतौना)-वन, चम्पक-वन, आम्र-वन, तिलकवन, लकुच ( वहड़ल) - वन, न्यग्रोध (वट) - वन, छत्रौघ वन, असन (बीजक, विजयसार) - वन, शण-वन, अलसी वन, कुसुम्भ-वन, श्वेत सर्षप का वन और बन्धुजीवक ( दुपहरिया के वृक्ष) का वन कान्ति से अतीव - अतीव उपशोभित-उपशोभित रहता है । भगवती सूत्र इसी प्रकार उन वानमंतर देवों के देवलोक जघन्यतः दस हजार वर्ष की स्थितिवाले और उत्कर्षतः एक पल्योपम की स्थितिवाले अनेक वानमंतर देवों और देवियों से आकीर्ण, व्यतिकीर्ण, उनके ऊपर और नीचे आने से ढके हुए, आच्छादित, स्पृष्ट (आसन, शयन आदि द्वारा परिभुक्त) और अत्यधिक अवगाढ़ अतीव - अतीव उपशोभित-उपशोभित हो रहे हैं । गौतम ! वानमंतर - देवों के देवलोक इस प्रकार के प्रज्ञप्त हैं। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - असंयत, अविरत, अतीत पापकर्म का प्रतिक्रमण और अनागत पापकर्म का प्रत्याख्यान न करनेवाला कोई जीव इस तिर्यंच या मनुष्य जन्म से मरकर अगले जन्म में देव होता है और कोई जीव देव नहीं होता । ५१. भन्ते ! वह ऐसा ही है, भन्ते ! वह ऐसा ही है। इस प्रकार भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करते हैं, वन्दन - नमस्कार कर वे संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं । दूसरा उद्देशक ५२. राजगृह नगर में भगवान् का समवसरण । परिषद् ने नगर से निर्गमन किया। भगवान् ने धर्म कहा। परिषद् वापस नगर में चली गई, यावत् गौतम स्वामी बोले कर्म-वेदन- पद ५३. भन्ते! क्या जीव स्वयंकृत दुःख का वेदन करता है ? गौतम ! जीव किसी दुःख का वेदन करता है, किसी दुःख का वेदन नहीं करता । ५४. भन्ते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जीव किसी दुःख का वेदन करता है, किसी दुःख का वेदन नहीं करता ? गौतम! जीव उदीर्ण (उदय प्राप्त ) दुःख का वेदन करता है, अनुदीर्ण (अनुदय - प्राप्त) दुःख का वेदन नहीं करता। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जीव किसी दुःख का वेदन करता है, किसी दुःख का वेदन नहीं करता । ८
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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