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________________ श. ११ : उ. ११ : सू. १४३-१४७ भगवती सूत्र प्रभावती देवी को इष्ट यावत् मदु-मधुर और श्री-संपन्न शब्दों के द्वारा पुनः-पुनः संलाप करता हुआ इस प्रकार बोला-देवानुप्रिये! स्वप्न-शास्त्र में बयांलीस स्वप्न और तीस महास्वप्न-सर्व बहत्तर स्वप्न निर्दिष्ट हैं। देवानुप्रिये! तीर्थंकर अथवा चक्रवर्ती की माता तीर्थंकर अथवा चक्रवर्ती के गर्भावक्रांति के समय इन तीस महास्वप्नों में से ये चौदह महास्वप्न देखकर जागृत होती है। पूर्ववत् यावत् मांडलिक राजा की माता मांडलिक राजा के गर्भावक्रांति के समय इन चौदह महास्वप्नों में से कोई एक महास्वप्न देखकर जागृत होती है। देवानुप्रिये! तुमने एक महास्वप्न देखा है इसलिए देवी! तुमने उदार स्वप्न देखा है यावत् राज्य का अधिपति राजा अथवा भावितात्मा अनगार होगा। देवी! तुमने उदार स्वप्न देखा है यावत् आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगलकारक स्वप्न देखा है। इस प्रकार उन इष्ट यावत् मृदु-मधुर, श्री-संपन्न शब्दों के द्वारा दूसरी और तीसरी बार प्रभावती देवी के उल्लास का संवर्द्धन करता है। १४४. वह प्रभावती देवी बल राजा के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हुई। दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दसनखात्मक अंजलि को मस्तक के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा–देवानुप्रिय! यह ऐसा ही है यावत् उस स्वप्न को सम्यक् स्वीकार किया। स्वीकार कर राजा बल की अनुज्ञा प्राप्त कर नाना मणि-रत्नों की भांतों से चित्रित भद्रासन से उठी। अत्वरित, अचपल, असंभ्रांत, अविलंबित राजहंसिनी जैसी गति के द्वारा जहां अपना भवन था, वहां आई। वहां आकर अपने भवन में अनुप्रवेश किया। १४५. प्रभावती देवी ने स्नान किया, बलि-कर्म किया यावत् शरीर को सर्व-अलंकार से विभूषित किया। वह उस गर्भ के लिए न अति शीत, न अति उष्ण, न अति तिक्त, न अति कटुक, न अति कषैला, न अति खट्टा, न अति मधुर, प्रत्येक ऋतु में सुखकर भोजन, आच्छादन और गंध, माल्य का सेवन करती। जो आहार हित, मित, पथ्य और गर्भ का पोषण करने वाला था उस देश और काल में वही आहार करती। दोष-रहित कोमल शय्या पर सोती। एकांत सुखकर मनोनुकूल विहार-भूमि में रहती। इस प्रकार अपने दोहद को प्रशस्त किया, अपने दोहद को संपूर्ण किया, अपने दोहद का सम्मान किया, अपने दोहद का लेश मात्र मनोरथ भी अधूरा नहीं छोड़ा, दोहद में उत्पन्न इच्छाओं को पूरा किया, दोहद पूर्ण किया। उसने रोग, शोक, मोह, भय और परित्रास से मुक्त होकर उस गर्भ का सुखपूर्वक वहन किया। १४६. प्रभावती देवी ने बहु प्रतिपूर्ण नौ मास और साढे सात रात दिन के व्यतिक्रांत होने पर सुकुमाल हाथ पैर वाले, अहीन पंचेन्द्रिय शरीर, लक्षण-व्यंजन-गुणों से युक्त, मान, उन्मान और प्रमाण से प्रतिपूर्ण, सुजात, सर्वांग-सुन्दर, चंद्रमा के समान सौम्य आकार वाले, कांत, प्रियदर्शन और सुरूप पुत्र को जन्म दिया। १४७. प्रभावती देवी ने पुत्र को जन्म दिया है-यह जानकर प्रभावती देवी की अंग-प्रतिचारिका जहां राजा बल था, वहां आई। वहां आकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दस-नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घमाकर, मस्तक पर टिकाकर राजा बल को जय विजय के द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर इस प्रकार बोली-देवानुप्रिय! प्रभावती देवी ने ४३०
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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