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________________ भगवती सूत्र श. ११ : उ. ९: सू. ८५-८९ लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं । देवानुप्रिय ! ऐसे अर्हत् भगवानों के नाम - गोत्र का श्रवण भी महान फलदायक है फिर अभिगमन, वंदन, नमस्कार, प्रतिपृच्छा और पर्युपासना का कहना ही क्या ? एक भी आर्य धार्मिक वचन का श्रवण महान फलदायक है फिर विपुल अर्थ-ग्रहण का कहना ही क्या ? इसलिए मैं जाऊं, श्रमण भगवान महावीर की वंदना करूं यावत् पर्युपासना करूं । यह मेरे इस भव और पर भव के लिए हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा - इस प्रकार संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर जहां तापस गृह था, वहां आया, वहां आकर, तापसगृह में अनुप्रवेश करता है, अनुप्रवेश कर बहुत सारे तवा, लोह - कडाह, कड़छी, ताम्र-पात्र, तापस- भाण्ड, वंशमय पात्र और कावड़ को ग्रहण किया, ग्रहण कर तापस - आवास से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण विभंग ज्ञान से प्रतिपतित वह हस्तिनापुर नगर के बीचोंबीच निर्गमन करता है, निर्गमन कर जहां सहस्राम्रवन उद्यान है, जहां भगवान महावीर हैं, वहां आया, वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार वंदन - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर न अति निकट और न अति दूर शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धांजलि होकर पर्युपासना करता है । ८६. श्रमण भगवान महावीर शिवराजर्षि को उस विशालतम धर्म परिषद् में धर्म कहते हैं यावत् आज्ञा की आराधना होती है। ८७. शिवराजर्षि भगवान महावीर के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर स्कंदक की भांति यावत् उत्तर-पूर्व दिशा में जाता है, जाकर तवा, लोह - कटाह, कड़छी, ताम्र-पात्र, तापस - भाण्ड, वंशमय- पात्र और कावड़ को एकांत में डाल देता है, डालकर स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच करता है, लोच कर श्रमण भगवान महावीर को दांयी ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वंदन - नमस्कार करता है इस प्रकार जैसे ऋषभदत्त प्रव्रजित हुआ वैसे ही शिवराजर्षि प्रव्रजित हो ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, उसी प्रकार सर्व यावत् सर्व दुःखों को जाता है। वंदन - नमस्कार कर गया । उसी प्रकार क्षीण करने वाला हो ८८. भंते ! भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को इस संबोधन से संबोधित कर वंदन - - नमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर इस प्रकार कहा- भंते! सिद्ध होने वाले जीव किस संहनन में सिद्ध होते हैं ? गौतम ! वज्रऋषभनाराच संहनन में सिद्ध होते हैं। इस प्रकार जैसे उववाई की वक्तव्यता है वैसे ही संहनन, संस्थान, उच्चत्व, आयुष्य और परिवसन। इस प्रकार सिद्धिगंडिका (उववाइ सू. १८५-१९५) तक निरवशेष वक्तव्य है यावत् सिद्ध अव्याबाध शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं। ८९. भंते! वह ऐसा ही है। भंत ! वह ऐसा ही है । ४१६
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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