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________________ भगवती सूत्र श. ११ : उ. ९: सू. ८०-८५ ८०. भंते! धातकी खण्ड द्वीप में द्रव्य-वर्ण सहित भी हैं ? वर्ण-रहित भी हैं ? गन्ध - सहित भी हैं ? गन्ध-रहित भी हैं ? रस सहित भी हैं ? रस-रहित भी हैं ? स्पर्श सहित भी हैं ? स्पर्श-रहित भी हैं? अन्योन्य-बद्ध, अन्योन्य-स्पृष्ट, अन्योन्य - बद्धस्पृष्ट और अन्योन्य- एकीभूत हुए हैं ? हां हैं। इस प्रकार यावत् ८१. भंते! स्वयंभूरमण समुद्र में द्रव्य वर्ण सहित भी हैं ? वर्ण-रहित भी हैं ? गन्ध सहित भी हैं ? गन्ध-रहित भी हैं ? रस सहित भी हैं ? रस-रहित भी हैं ? स्पर्श सहित भी हैं ? स्पर्श-रहित भी हैं? अन्योन्य-बद्ध, अन्योन्य-स्पृष्ट अन्योन्य-बद्धस्पृष्ट और अन्योन्य- एकीभूत ब हुए हैं ? हां हैं । ८२. वह विशालतम ऐश्वर्यशाली परिषद् श्रमण भगवान महावीर के पास इस अर्थ को सुनकर अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हो गई। उसने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन - नमस्कार किया । वंदन - नमस्कार कर जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई। ८३. हस्तिनापुर नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं - देवानुप्रिय ! शिव राजर्षि जो यह आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं - देवानुप्रिय ! मुझे अतिशायी ज्ञान दर्शन समुत्पन्न हुआ है, इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं, उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं- यह अर्थ संगत नहीं है । श्रमण भगवान महावीर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं- इस शिव राजर्षि के बेले बेले तप द्वारा शेष पूर्ववत् यावत् भाण्ड को स्थापित किया, स्थापित कर हस्तिनापुर नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राज- मार्गों और मार्गों पर बहुजनों के सामने इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं–देवानुप्रिय ! मुझे अतिशायी ज्ञान - दर्शन समुत्पन्न हुआ है। इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं। उस शिवराजर्षि के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर यावत् उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं - वह मिथ्या है। श्रमण भगवान महावीर इस प्रकार आख्यान करते हैं- आयुष्मन् श्रमण ! इस जंबूद्वीप आदि द्वीप, लवण आदि समुद्र पूर्ववत् यावत् असंख्येय द्वीप और समुद्र प्रज्ञप्त हैं । ८४. शिवराजर्षि बहुजनों के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर, शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेद- समापन और कलुष - समापन्न हो गया । शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेद - समापन और कलुष - समापन्न उस शिवराजर्षि के वह विभंग ज्ञान शीघ्र ही प्रतिपतित हो गया। ८५. शिव राजर्षि के इस आकार वाला आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ— श्रमण भगवान महावीर तीर्थंकर, आदिकर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, आकाशगत धर्मचक्र से शोभित यावत् सहस्राम्रवन उद्यान में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति ४१५
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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