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________________ भगवती सूत्र श. ११ : उ. ९ : सू. ७१-७६ प्रकृति की उपशांतता, प्रकृति में क्राध, मान, माया और लोभ की प्रतनुता, मृदु-मार्दवसंपन्नता, आत्म-लीनता और विनीतता के द्वारा किसी समय तदावरणीय कर्म का क्षयोपशम कर ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए उस शिवराजर्षि के विभंग नामक ज्ञान समुत्पन्न हुआ। वह उस समुत्पन्न विभंग ज्ञान के द्वारा उस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र को देखने लगा। उससे आगे न जानता है और न देखता है। ७२. उस शिव राजर्षि के इस आकार वाला आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक , मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं। इससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं इस प्रकार संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर आतापन- भूमि से नीचे उतरा, उतर कर वल्कल-वस्त्र पहनकर जहां अपना उटज था, वहां आया, वहां आकर बहुत सारे तवा, लोह-कड़ाह, कड़छी, ताम्र-पात्र, तापस-भाण्ड, वंश-मय पात्र और कावड़ को ग्रहण किया, ग्रहण कर जहां हस्तिनापुर नगर था, जहां तापस रहते थे वहां आया, वहां आकर भांड को स्थापित किया, स्थापित कर हस्तिनापुर नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजनों के सामने इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपण करता है-देवानुप्रिय! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन समुत्पन्न हुआ है, इस प्रकार लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं, उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं। ७३. उस शिव राजर्षि के पास इस अर्थ को सुनकर अवधारण कर हस्तिनापुर नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं-देवानुप्रिय! शिव राजर्षि इस प्रकार का आख्यान यावत् प्ररूपणा करता हैं-देवानुप्रिय! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन समुत्पन्न हुआ है। इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं। उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं, यह कैसे ७४. उस काल और उस समय में भगवान महावीर आए। परिषद् ने नगर से निर्गमन किया। भगवान ने धर्म कहा। परिषद् वापस नगर में चली गई। ७५. उस काल और उस समय में भगवान महावीर के ज्येष्ठ अंतेवासी इंद्रभूति नामक अनगार जैसे द्वितीय शतक में निग्रंथ उद्देशक (२/१०६-१०९) की वक्तव्यता यावत् सामुदानिक भिक्षा के लिए घमते हए अनेक व्यक्तियों से ये शब्द सने. बहजन परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं-देवानुप्रिय! शिव राजर्षि इस प्रकार आख्यान यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं-देवानुप्रिय! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन समुत्पन्न हुआ है। इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं। उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं। यह कैसे है ? ७६. बहुजनों के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर भगवान गौतम के मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई यावत् भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोले-भंते! मैंने आपकी अनुज्ञा पाकर हस्तिनापुर नगर के उच्च, नीच और मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षा के लिए घूमते हुए अनेक व्यक्तियों से ये शब्द सुने–देवानुप्रिय! शिव राजर्षि इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं देवानुप्रिय! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन ४१३
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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