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________________ (XLV) सारे प्रसंगों में यह सिद्ध करना कठिन है कि उनमें से कितना निरूपण उनका अपना है तथा कितना दूसरों का है, फिर भी कहीं-कहीं वे स्वयं स्पष्ट रूप से अपने आपको अमुक सिद्धान्त के निरूपक के रूप में घोषित करते हैं । वे स्वयं कहते हैं- "एवं खलु, गोयमा, मए सत्त सेढीओ पण्णत्ताओ।" (वियाहपण्णत्ती, ९५४बी.) – इस प्रकार मैंने सात श्रेणियों का निरूपण किया है । इन सबके संदर्भ में परमाणुओं और आकाश-प्रदेशों के जघन्य एवं उत्कृष्ट अंकों का विवेचन किया है, जो हमें गणनात्मक चिन्तन तक पहुंचाता है। इन सबमें एक परिवारगत रुचि दृष्टिगोचर हो रही है। जहां इसके साथ इसको प्रयोग में लाने की रुचि भी जुड़ती है, वहां संभवतः हम महावीर के मौलिक विचार से साक्षात्कार करते हैं ।' "डॉ. डेल्यू. ने लिखा है ' - 'निष्कर्ष रूप में मैं कहना चाहूंगा कि 'अन्यतीर्थिक आगमपाठों' में अनेक विविधतापूर्ण विषयों की जो चर्चा की गई है, वे महावीर के व्यक्तित्व को एक चिन्तक एवं एक प्रणेता के रूप में प्ररूपित करते हैं तथा उस अद्भुत युग का चित्रण भी, जब धर्म और दर्शन का सृजनात्मक दौर चल रहा था । ऐसा प्रतीत होता है कि महावीर उस युग के अन्य किसी भी दार्शनिक की तुलना में, यहां तक कि बुद्ध की तुलना में भी अपने समय के आध्यात्मिक उत्साह एवं उत्कटता से अधिक प्रेरित थे । "" फ्राउवालनार ने अपने ग्रन्थ हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलासोफी में बुद्ध की संभवतः जिन (महावीर) से तुलना करते समय बुद्ध के विषय में यह अभिमत व्यक्त किया है कि उनका (बुद्ध का) दार्शनिक विचारों के क्षेत्र में अपेक्षाकृत बहुत थोड़ा योगदान मिला है । यद्यपि यह फैसला बहुत अधिक कड़ा है, फिर भी यह एक मजबूत आधारभित्ति पर आधारित है कि बुद्ध अपने समकालीन दार्शनिकों के सामने आने वाले प्रश्नों के उत्तर देने से साफ इन्कार कर देते थे। चूंकि महावीर ने इन सभी प्रश्नों के बहुत ही व्यवस्थित रूप से उत्तर दिए; इसलिए उन्हें जो प्राचीन भारत के ज्ञानी चिन्तकों में सर्वाधिक ज्ञानी कहा गया है, वह बिलकुल उचित ही है।"२ " प्रस्तुत आगम में गति - विज्ञान, भावितात्मा द्वारा नाना रूपों का निर्माण, भोजन और नाना रूपों के निर्माण का सम्बन्ध', चतुर्दशपूर्वी द्वारा एक वस्तु के हजारों प्रतिरूपों का निर्माण', भावितात्मा द्वारा आकाशगमन, पृथ्वी आदि स्थावर जीवों का श्वास - उच्छ्वास', १. on J. Delue's article "Lord ३. Mahavira and the Anyatirthikas" in "Mahavira and His Teachings", p.193. २. भगवई (भाष्य), खण्ड १, भूमिका, पृ. २०-२१ । ४. ५. ६. ७. ८. अंगसुत्ताणि, भाग २, भगवई, ३/११७१२६ । वही, ३ / १८६ - १९१; ३ / १९४-१९६ । वही, ३/१९१। वही, ५/११२,११३ ॥ वही, ३ / १९७ - २१८ । वही, २ / २-८; ९ / २५३ - २५७ ।
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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