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________________ भगवती सूत्र श. ९ : उ. ३२ : सू. १२०-१२२ नैरयिक अंतर-सहित उद्वर्तन करते हैं? निरंतर उद्वर्तन करते हैं? यावत् वाणमंतर अंतर-सहित उद्वर्तन करते हैं? निरंतर उद्वर्तन करते हैं? ज्योतिष्क अंतर-सहित च्युत होते हैं? निरन्तर च्युत होते हैं? वैमानिक अंतर-सहित च्युत होते हैं? निरंतर च्युत होते हैं? गांगेय! नैरयिक अंतर-सहित भी उपपन्न होते हैं, निरंतर भी उपपन्न होते हैं यावत् स्तनितकुमार अंतर-सहित भी उपपन्न होते हैं, निरंतर भी उपपन्न होते हैं। पृथ्वीकायिक अंतर-सहित उपपन्न नहीं होते, निरंतर उपपन्न होते हैं। इस प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक। शेष जैसे नैरयिक यावत् वैमानिक अंतर-सहित भी उपपन्न होते हैं. निरंतर भी उपपन्न होते हैं। नैरयिक अंतर-सहित भी उद्वर्तन करते हैं, निरंतर भी उद्वर्तन करते हैं। इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार। पृथ्वीकायिक अंतर-सहित उद्वर्तन नहीं करते, निरंतर उद्वर्तन करते हैं। इस प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक। शेष जैसे नैरयिक, इतना विशेष है-ज्योतिष्क, वैमानिक च्युत होते हैं आलापक यावत् वैमानिक अंतर-सहित भी च्युत होते हैं, निरंतर भी च्युत होते हैं। सद्-असद्-उपपन्न-आदि-पद १२१. भंते! सत् नैरयिक उपपन्न होते हैं? असत् उपपन्न होते हैं? सत् असुरकुमार उपपन्न होते हैं, यावत् सत् वैमानिक उपपन्न होते हैं? असत् वैमानिक उपपन्न होते हैं ? सत् नैरयिक उद्वर्तन करते हैं? असत् नैरयिक उद्वर्तन करते हैं? सत् असुरकुमार उद्वर्तन करते हैं? यावत् सत् वैमानिक च्युत होते हैं? असत् च्युत होते हैं? गांगेय! सत् नैरयिक उपपन्न होते हैं, असत् उपपन्न नहीं होते। सत् असुरकुमार उपपन्न होते हैं, असत् उपपन्न नहीं होते यावत् सत् वैमानिक उपपन्न होते हैं, असत् उपपन्न नहीं होते। सत् नैरयिक उद्वर्तन करते हैं, असत् उद्वर्तन नहीं करते यावत् सत् वैमानिक च्युत होते हैं, असत् च्युत नहीं होते। १२२. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है सत् नैरयिक उपपन्न होते हैं, असत् उपपन्न नहीं होते यावत् सत् वैमानिक च्युत होते हैं, असत् च्युत नहीं होते? हे गांगेय! आपके पूर्ववर्ती पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व ने लोक को शाश्वत कहा है, वह अनादि अनंत, परीत, अलोक से परिवृत, निम्नभाग में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर विशाल है। वह निम्नभाग में पर्यंक के आकार वाला, मध्य में श्रेष्ठ वज्र के आकार वाला और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाला है। उस शाश्वत अनादि अनंत, परीत, अलोक से परिवृत, निम्नभाग में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त ऊपर में विशाल, निम्नभाग में पर्यंक, मध्य में श्रेष्ठ वज्र और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाले लोक में अनंत जीव-घन उत्पन्न होकर, उत्पन्न होकर विलीन हो जाते हैं, परीत जीव-घन उत्पन्न होकर, उत्पन्न होकर विलीन हो जाते वह लोक सद्भूत, उत्पन्न, विगत और परिणत है। अजीव-पुद्गल आदि के विविध परिणमनों के द्वारा जिसका लोकन किया जाता है, प्रलोकन किया जाता है, वह लोक है। गांगेय! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है यावत् सत् वैमानिक च्युत होते हैं, असत् च्युत नहीं होते। ३५९
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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