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________________ श. ७ : उ. १,२ : सू. २४-२८ भगवती सूत्र आहार करने वाला श्रमण निग्रन्थ प्रकामरस-भोजी नहीं कहलाता। गौतम! क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त पान-भोजन का यह अर्थ है। २५. भन्ते! शस्त्रातीत, शस्त्र-परिणामित एषणा से प्राप्त, साधुवेश से लब्ध और सामुदानिक पान-भोजन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त है? गौतम! शस्त्र (चाकु आदि) और मूसल का प्रयोग न करने वाला, पुष्पमाला और चन्दन के विलेपन से रहित निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी जो आहार व्यपगत-च्युत-च्यावित- और त्यक्त-जीव-शरीर वाला, जीव-रहित, साधु के निमित्त न किया गया, न कराया गया, न संकल्पित किया गया, आमन्त्रण-रहित, साधु के निमित्त न खरीदा गया, साधु को उद्दिष्ट कर न बनाया गया, नवकोटि से परिशुद्ध, दस दोष से विप्रमुक्त, उद्गम, उत्पादन और एषणा से परिशुद्ध, अंगार, धूम और संयोजना-दोष से विप्रमुक्त है। वैसा आहार करता है तथा 'सुरसुर' और 'चवचव' शब्द न करते हुए, न अधिक शीघ्रता से और न अधिक विलम्ब से, भूमि पर नहीं गिराते हुए, गाड़ी के पहिए की धूरी पर किए जाने वाले म्रक्षण और व्रण पर किए जाने वाले अनुलेप की भांति संयम-यात्रा के लिए अपेक्षित मात्रा वाला, संयम का भार वहन करने के लिए जैसे सर्प बिल में प्रवेश करते समय सीधा होता है वैसे ही स्वाद लिए बिना सीधा खाने वाला-जो इस विधि से आहार करता है, गौतम! यह शस्त्रातीत, शस्त्र-परिणामित, एषित, वैशिक और सामुदानिक पान-भोजन का अर्थ प्रज्ञप्त है। २६. भन्ते! वह ऐसा ही है। भन्ते! वह ऐसा ही है। दूसरा उद्देशक सुप्रत्याख्यान-दुष्प्रत्याख्यान-पद २७. कोई पुरुष कहता है-मैंने सब प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है? भन्ते! उसका वह प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यात होता है? अथवा दुष्प्रत्याख्यात होता है? गौतम! जो पुरुष कहता है-मैंने सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है। उसका वह प्रत्याख्यान स्यात् सुप्रत्याख्यात होता है, स्यात् दुष्प्रत्याख्यात होता है। २८. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है जो पुरुष कहता है-मैंने सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है, उसका वह प्रत्या-ख्यान स्यात् सुप्रत्याख्यात होता है, स्यात् दुष्प्रत्याख्यात होता है? गौतम! जो पुरुष कहता है मैंने सब प्राण यावत् सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है और जिसे यह ज्ञात नहीं होता कि ये जीव हैं, ये अजीव हैं; ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं, उसके सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यात नहीं होता, दुष्प्रत्याख्यात होता है। इस प्रकार वह दुष्प्रत्याख्यानी कहता है-मैंने सब प्राण यावत् सब सत्त्वों के वध का प्रत्याख्यान किया है, वह सत्य भाषा नहीं बोलता, मृषा भाषा बोलता है। इस प्रकार वह २२८
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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