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________________ भगवती सूत्र श. ६ : उ. ६,७ : सू. १२५-१३० आहरण करता है, उनका परिणमन करता है, उनसे शरीर का निर्माण करता है। जिस प्रकार मेरु पर्वत के पूर्व में (इतने दूर जाने से सम्बन्धित) आलापक कहा गया है, इसी प्रकार दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊर्ध्व और अधो दिशा में वक्तव्य है। जैसे पृथ्वीकायिक-जीवों के आलापक कहे गए हैं, वैसे ही शेष सब एकेन्द्रिय-जीवों में से प्रत्येक के छह-छह आलापक वक्तव्य हैं। १२६. भन्ते! जीव मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है। समवहत हो कर जो भव्य असंख्येय लाख द्वीन्द्रिय-आवासों में से किसी एक द्वीन्द्रियावास में द्वीन्द्रिय के रूप में उपपन्न होता है, भन्ते! वह वहां द्वीन्द्रियावास में जाते ही पुद्गलों का आहरण करता है? उनका परिणमन करता है? उनसे शरीर का निर्माण करता है? नैरयिक जीवों की भांति वक्तव्यता। इस प्रकार यावत् अनुत्तरौपपातिक की वक्तव्यता। १२७. भन्ते! जीव मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है। समवहत होकर जो भव्य पांच अनुत्तर महति-महान् महाविमानों में से किसी एक अनुत्तर विमान में अनुत्तरौपापतिक-देव के रूप में उपपन्न होता है, भन्ते! वह वहां अनुत्तरौपपातिक-विमान में जाते ही पुद्गलों का आहरण करता है? उनका परिणमन करता है? उनसे शरीर का निर्माण करता है? यह पूर्ववत् ज्ञातव्य है यावत् वह पुद्गलों का आहरण करता है, परिणमन करता है, उनसे शरीर का निर्माण करता है। १२८. भन्ते! वह ऐसा ही ह। भन्ते! वह ऐसा ही है। सातवां उद्देशक धान्यों की योनि आर स्थिति का पद १२९. भन्ते! शालि, व्रीहि, गेहूं, जौ तथा यवयव-इन धान्यों को कोठे, पल्य, मचान और माल में डाल कर उनके द्वार-देश को लीप देने, चारों ओर से लीप देने, ढक्कन के ढक देने, मिट्टी से मुद्रित कर देने और रेखाओं से लांछित कर देने पर उनकी योनि (उत्पादक-शक्ति) कितने काल तक रहती है? गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्षतः तीन वर्ष उसके बाद योनि म्लान हो जाती है, प्रविध्वस्त हो जाती है, बीज अबीज हो जाता है, योनि का विच्छेद हो जाता है, आयुष्मन् श्रमण! १३०. मटर, मसूर, तिल, मूंग, उड़द, निष्पाव (सेम), कुलथी, चवला, मटर का एक भेद और काला चना आदि-इन धान्यों को कोठे, पल्य, मचान और माल में डाल कर उनके द्वार-देश को लीप देने, चारों ओर से लीप देने, ढक्कन से ढ़क देने, मिट्टी से मुद्रित कर देने और रेखाओं से लांछित कर देने पर उनकी योनि कितने काल तक रहती है? गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः पांच वर्ष उसके बाद योनि म्लान हो जाती है, प्रविध्वस्त हो जाती है, बीज अबीज हो जाता है, योनि का विच्छेद हो जाता है, आयुष्यमन् श्रमण! २११
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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