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________________ भगवती सूत्र श. ६ : उ. ६ : सू. १२१-१२५ गौतम ! अनुत्तरविमान पांच प्रज्ञप्त हैं, जैसे- विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध । मारणान्तिक-समुद्घात - पद १२२. भन्ते ! जीव मारणान्तिक- समुद्घात से समवहत होता है। समवहत हो कर जो भव्य इस रत्नप्रभा - पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से किसी एक नरकावास में नैरयिक के रूप में उत्पन्न होने वाला है, भन्ते ! वह जीव वहां नरकावास में जाते ही क्या पुद्गलों का आहरण करता है ? उनका परिणमन करता है? उनसे शरीर का निर्माण करता है ? गौतम ! कोई जीव वहां नरकावास में जाते ही पुद्गलों का आहरण करता है, उनका परिणमन करता है और उनसे शरीर का निर्माण करता है। कोई जीव वहां से लौट आता है। लौटकर यहां अपने वर्तमान शरीर में आ जाता है। आ कर फिर दूसरी बार मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है । समवहत हो कर इस रत्नप्रभा पृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से किसी एक नरकावास में नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है। उसके पश्चात् पुद्गलों का आहरण करता है, उनका परिणमन करता है और उनसे शरीर का निर्माण करता है। इस प्रकार अधः सप्तमी पृथ्वी तक ज्ञातव्य है । १२३. भन्ते ! जीव मारणान्तिक- समुद्घात से समवहत होता है । समवहत कर जो भव्य चौसठ लाख असुरकुमारावासों में से किसी एक असुरकुमारावास में असुरकुमार के रूप में उपपन्न होता है, उसकी वक्तव्यता नैरयिक की भांति (सू.१२२) ज्ञातव्य है । असुरकुमार से तनिककुमार तक यही वक्तव्यता । १२४. भन्ते ! जीव मारणान्तिक- समुद्घात से समवहत होता है। समवहत हो कर जो भव्य असंख्य-लाख पृथ्वीकायिक आवासों में से किसी एक पृथ्वीकायिक-आवास में पृथ्वीकायिक के रूप में उपपन्न होता है, भन्ते ! वह जीव मेरू पर्वत के पूर्व में कितनी दूर जाता है? कितनी दूरी प्राप्त करता है ? गौतम ! वह लोकान्त तक जाता है, लोकान्त को प्राप्त करता है । १२५. भन्ते! वह वहां पृथ्वीकायिक- आवास में जाते ही क्या पुद्गलों का आहरण करता है ? उनका परिणमन करता है? उनसे शरीर का निर्माण करता है ? गौतम ! कोई जीव वहां पृथ्वीकायिक- आवास में जाते ही पुद्गलों का आहरण करता है, उनका परिणमन करता है, उनसे शरीर का निर्माण करता है। कोई जीव वहां से लौट आता है, लौट कर यहां अपने वर्तमान शरीर में आता है, आ कर फिर दूसरी बार मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है । समवहत हो कर मेरुपर्वत के पूर्व में अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र, संख्यातवें भाग मात्र, बालाग्र, बालाग्र पृथक्त्व ( अनेक बालाग्र), इसी प्रकार लीख, जूं, यव, अंगुल यावत् कोटि योजन, कोटिकोटि योजन, संख्येय- हजार योजन और असंख्येय- हजार योजन में अथवा लोकान्त में एकप्रदेशात्मक श्रेणी को छोड़ कर पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्य - लाख पृथ्वीकायिक- आवासों में से किसी एक पृथ्वीकायिक-आवास में पृथ्वीकायिक क रूप में उपपन्न होता है, उसके पश्चात् पुद्गलों का २१०
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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