SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र गौतम ! सर्व काल में जीव अवस्थित रहते हैं । २१३. भन्ते! नैरयिक-जीव कितने काल तक बढ़ते हैं ? गौतम ! जघन्यतः वे एक समय तक बढ़ते हैं, उत्कर्षतः आवलिका के असंख्यातवें भाग तक । श. ५ : उ. ८ : सू. २१२-२२२ २१४. इसी प्रकार जीव घटते भी हैं । ( जघन्यतः एक समय तक, उत्कर्षतः आवलिका के असंख्यातवें भाग तक ) । २१५. भन्ते ! नैरयिक-जीव कितने काल तक अवस्थित रहते हैं ? गौतम ! जघन्यतः एक समय तक और उत्कर्षतः चौबीस मुहूर्त्त तक । २१६. इसी प्रकार सातों पृथ्वियों में नैरयिक- जीवों की वृद्धि और हानि वक्तव्य है । विशेष अवस्थिति में यह नानात्व है, जैसे - रत्नप्रभा - पृथ्वी में अड़तालीस मुहूर्त्त, शर्कराप्रभा - पृथ्वी में चौदह दिन-रात, बालुकाप्रभा - पृथ्वी में एक मास, पंकप्रभा - पृथ्वी में दो मास, धूमप्रभा - पृथ्वी में चार मास, तमा- पृथ्वी में आठ मास और तमतमा पृथ्वी में बारह मास तक अवस्थित रहते हैं। २१७. असुरकुमार देव भी नैरयिक- जीवों की भांति बढ़ते घटते हैं। वे जघन्यतः एक समय और उत्कर्षतः अड़तालीस मुहूर्त्त तक अवस्थित रहते हैं । २१८. इसी प्रकार दस प्रकार के भवनपति देवों का वृद्धि-हानि और अवस्थिति-काल वक्तव्य है । २१९. एकेन्द्रिय-जीव बढ़ते भी हैं, घटते भी हैं और अवस्थित भी हैं। इन तीनों की वृद्धि, हानि और अवस्थिति का काल जघन्यतः एक समय और उत्कर्षतः आवलिका का असंख्यातवां भाग है । २२०. द्वीन्द्रिय-जीव एकेन्द्रिय जीवों की भांति बढ़ते घटते हैं। वे जघन्यतः एक समय और उत्कर्षतः दो अन्तर्मुहूर्त्त तक अवस्थित रहते हैं । २२१. चतुरिन्द्रिय जीवों तक वृद्धि, हानि और अवस्थिति का यही क्रम ज्ञातव्य है । २२२. अवशेष सब जीव एकेन्द्रिय-जीवों की भांति बढ़ते घटते हैं । अवस्थिति का नानात्व इस प्रकार है, जैसे - सम्मुर्च्छिम- पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-दो अन्तमुहूर्त, गर्भज- पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-चौबीस मुहूर्त, सम्मूर्च्छिम- मनुष्य - अड़तालीस मुहूर्त, गर्भज - मनुष्य - चौबीस मुहूर्त, वानमन्तर, ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान - देवलोक में अड़तालीस मुहूर्त्त, सनत्कुमारदेवलोक में अठारह दिन-रात और चालीस मुहूर्त, माहेन्द्र देवलोक में चौबीस दिन-रात और बीस मुहूर्त्त, ब्रह्मलोक-देवलोक में पैंतालीस दिन-रात, लान्तक - देवलोक में नव्वे दिन-रात, महाशुक्र देवलोक में एक सौ साठ दिन-रात, सहस्रार देवलोक में दो सौ दिन-रात, आनतऔर प्राणत - देवलोकों में संख्येय मास, आरण और अच्युत देवलोकों में संख्येय वर्ष, इसी प्रकार ग्रैवेयक देवों या देवलोकों में, विजय, वैजयन्त, जयन्त- और अपराजित - देवलोकों में असंख्येय हजार वर्ष तथा सर्वार्थसिद्ध में पल्योपम का संख्यातवां भाग १८५
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy