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________________ श. ५ : उ. २,३ : सू. ५१-५७ भगवती सूत्र कहा जा सकता है। सुरा में जो द्रव द्रव्य हैं, वे पूर्व-पर्याय-प्रज्ञापन की अपेक्षा से जल-जीवों के शरीर हैं। उसके पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्नि रूप में परिणत होने पर उन्हें अग्नि-जीवों का शरीर कहा जा सकता है। ५२. भन्ते! लोहा, ताम्बा, रांगा, सीसा, पाषाण और कसौटी–इन्हें किन जीवों का शरीर कहा जा सकता है? गौतम! लोहा, ताम्बा, रांगा, सीसा, पाषाण और कसौटी-ये पूर्व-पर्याय-प्रज्ञापन की अपेक्षा से पृथ्वी-जीवों के शरीर हैं। उसके पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्नि-रूप में परिणत होने पर उन्हें अग्नि-जीवों का शरीर कहा जा सकता है। ५३. भन्ते! अस्थि, दग्ध अस्थि, चर्म, दग्ध चर्म, रोम, दग्ध रोम, सींग, दग्ध सींग, खुर, दग्ध खुर, नख और दग्ध नख–इन्हें किन जीवों का शरीर कहा जा सकता है? गौतम! अस्थि, दग्ध अस्थि, चर्म, दग्ध चर्म, रोम, दग्ध रोम, सींग, दग्ध सींग, खुर, दग्ध खुर, नख और दग्ध नख-ये पूर्व-पर्याय-प्रज्ञापन की अपेक्षा त्रस-प्राण-जीवों के शरीर हैं। उसके पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्नि-रूप में परिणत होने पर इन्हें अग्नि-जीवों का शरीर कहा जा सकता है। ५४. भन्ते! अंगार, राख, बुसा और गोबर-इन्हें किन जीवों का शरीर कहा जा सकता है? गौतम! अंगार, राख, बुसा और गोबर-ये पूर्व-पर्याय-प्रज्ञापन की अपेक्षा से एकेन्द्रिय-जीवों द्वारा भी शरीर-प्रयोग में परिणमित है, यावत् पंचेन्द्रिय-जीवों द्वारा भी शरीर-प्रयोग में परिणमित है। उसके पश्चात् वे शस्त्रातीत यावत् अग्नि-रूप में परिणत होने पर उन्हें अग्निजीवों का शरीर कहा जा सकता है। लवण समुद्र-पद ५५. भन्ते! लवण समुद्र की चक्राकार चौड़ाई कितनी प्रज्ञप्त है? उसकी चक्राकार चौड़ाई दो लाख योजन की है यावत् जीवाजीवाभिगम (३/७०६-७९५) के लोक-स्थिति लोकानुभाव तक वक्तव्य है। ५६. भन्ते! वह ऐसा ही है। भन्ते! वह ऐसा ही है। इस प्रकार कह कर भगवान् गौतम यावत् विहरण कर रहे हैं। तीसरा उद्देशक आयुष्य-प्रकरण-प्रतिसंवेदन-पद ५७. भन्ते! अन्ययूथिक ऐसा आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करते हैं जैसे कोई जाल-ग्रन्थिका है। उस जाल में क्रमपूर्वक गांठे दी हुई हैं। एक के बाद एक किसी अंतर के बिना गांठे दी हुई हैं, परम्पर ग्रन्थियों के साथ गूंथी हुई हैं। सब ग्रन्थियां परस्पर एक-दूसरी से गूंथी हुई हैं। वैसा जाल परस्पर विस्तीर्ण, परस्पर भारी, परस्पर विस्तीर्ण और परस्पर भारी होने के कारण परस्पर समुदय-रचना के रूप में अवस्थित है। इसी प्रकार अनेक जीवों के अनेक हजार जन्मों के अनेक हजार आयुष्य क्रम से गूंथे हुए यावत् समुदय-रचना के रूप में अवस्थित हैं। १५६
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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