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(XIX) जैसे–पण्णवणा। भगवती के संदर्भ में भ. के साथ सूत्रांक दिए हैं। जैसे-भ. २५/४३० (पृष्ठ ८३७)
४. आवश्यकतानुसार अन्तःशीर्षक दिए हैं, जैसे
नैरयिक आदि में उपपात आदि के गमक का पद, नरक-अधिकार (भ. २४/१, पृष्ठ ७०९),
प्रथम आलापक : नैरयिक में असंज्ञी-तिर्यंच-पचेन्द्रिय का उपपात आदि (भ. २४/३, पृष्ठ ७०९),
प्रथम नरक में असंज्ञी-तिर्यंच-पंचेन्द्रिय का उपपात आदि (भ. २४/६, पृष्ठ ७१०)। पहला गमक : औधिक और औधिक
१. उपपात-द्वार (भ. २४/७, पृष्ठ ७१०) ५. जहां मूल में 'जाव' का प्रयोग है वहां अनुवाद में 'यावत्' का प्रयोग कर जो अंतिम शब्द दिया है, वहां 'तक' उसे समझना चाहिए।
जैसे-'गौतम! संख्येय नहीं हैं, असंख्येय नहीं हैं, अनन्त हैं। इसी प्रकार वृत्त-संस्थान अनन्त हैं। इसी प्रकार यावत् आयत-संस्थान । इसी प्रकार पुनरपि एक-एक संस्थान के साथ पांचों संस्थानों की चारणा करणीय है, जैसे अधस्तन संस्थान यावत् आयत-संस्थान के साथ। इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमी। इसी प्रकार कल्पों में भी यावत् ईषत्-प्राग्भारापृथ्वी।' (पृ. ७८८)
भाष्य लिखते समय मुझे अनुवाद में कुछ परिवर्तन करना आवश्यक लगा।
इस प्रकार का परिवर्तन आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के सान्निध्य में जब २५वें शतक के भाष्य का कार्य चल रहा था तब भी करना पड़ा था। उदाहरणार्थ
'भन्ते! जहां एक परिमण्डल-संस्थान यवमध्य (परिमाण वाला) है वहां क्या परिमण्डल-संस्थान संख्येय हैं? असंख्येय हैं? अथवा अनन्त हैं?
गौतम! संख्येय नहीं हैं, असंख्येय नहीं हैं, अनन्त हैं।' भ. २५/४५ (पृष्ठ ७८७)
इस सूत्र में यव-मध्य का अर्थ पहले ‘यव-मध्य आकार वाला' किया था। बाद में भाष्य लिखते समय पता चला कि यह ‘यव-मध्य' परिमाण वाचक है। इसलिए अनुवाद में भी यह परिवर्तन किया तथा उसके भाष्य में इसे स्पष्ट किया गया।
बाद में भी जब मैंने भाष्य लिखना प्रारम्भ किया, तो कहीं-कहीं परिवर्तन की अपेक्षा लगी। जैसे
"भंते! (एक) परिमण्डल-संस्थान द्रव्य की अपेक्षा क्या कृतयुग्म है? योज है? द्वापरयुग्म है? कल्योज है?
गौतम! (एक) परिमण्डल-संस्थान द्रव्य की अपेक्षा न कृतयुग्म है, न त्र्योज है, न .