SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र श. ३ : उ. २ : सू. ११४-११६ बाद आंखे खोल कर मूंद लेता है। आंखें मदे-मूंदे चिन्तन में डूब जाता है। इस व्याकुलता केक्षण में उसके मुकुट का विस्तार हो गया, उसके हाथ के आभरण नीचे लटक गए। पांव ऊपर और सिर नीचे किए हुए वह मानो कांख में से स्वेद-बूंदों को टपकाता हुआ उस उत्कृष्ट यावत् देव-गति से तिरछे - लोक में असंख्य द्वीप - समुद्रों बीचों-बीच गुजरता हुआ जहां जम्बूद्वीप द्वीप है यावत् जहां प्रवर अशोकवृक्ष है, जहां मेरा पार्श्व है, वहां आता है। आकर भयभीत बना हुआ भय से घबराते हुए स्वर में बोला- 'भगवन्! आप शरण हैं' ऐसा कहता हुआ मेरे दोनों पांव के अन्तराल में शीघ्र ही अतिवेग से गिर गया। शक्र का वज्र - प्रतिसंहरण-पद ११५. उस देवेन्द्र देवराज शक्र के यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - असुरेन्द्र असुरराज चमर प्रभु नहीं है, असुरेन्द्र असुरराज चमर समर्थ नहीं हैं तथा असुरेन्द्र असुरराज चमर का विषय नहीं है कि वह अपनी निश्रा (शक्ति) से ऊर्ध्व - लोक में यावत् सौधर्म -कल्प तक आएं। वह अर्हत्, अर्हत-चैत्य अथवा भावितात्मा अनगार की निश्रा के बिना ऊर्ध्व - लोक में यावत् सौधर्म -कल्प तक नहीं आ सकता। अतः मेरे लिए यह महान् कष्ट का विषय है कि मैंने तथारूप अर्हत्, भगवान और अनगारों की अति आशातना की है। ऐसा सोच कर वह अवधि- ज्ञान का प्रयोग करता है । अवधि ज्ञान से मुझे देखता है, मुझे देख कर 'हा! हा! अहो ! मैं मारा गया' - ऐसा कह कर वह उस उत्कृष्ट यावत् दिव्य देव -गति से वज्र की वीथि का अनुगमन करता हुआ तिरछे लोक में असंख्य द्वीपसमद्रों के ठीक मध्य भाग गुजरता हुआ यावत् जहां प्रवर अशोक वृक्ष है, जहां मेरा पार्श्व है वहां आता है। आकर मुझसे चार अंगुल दूर रहे वज्र को उसने पकड़ लिया और गौतम ! उसकी मुट्ठी से उठी हुई हवा से मेरे केशाग्र प्रकम्पित हो गए । ११६. वह देवेन्द्र देवराज शक्र वज्र को पकड़कर तीन बार दांई ओर से प्रारम्भ कर मेरी प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वन्दन - नमस्कार करता है, वन्दन नमस्कार कर इस प्रकार बोला- भंते! असुरेन्द्र असुरराज चमर ने आपकी निश्रा से स्वयं ही मेरी अति आशातना की । तब मैंने कुपित हो कर असुरेन्द्र असुरराज चमर का वध करने के लिए वज्र का प्रक्षेपण किया । उस समय मेरे मन में यह इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन हुआ - असुरेन्द्र असुरराज चमर प्रभु नहीं है, असुरेन्द्र असुरराज चमर समर्थ नहीं है तथा असुरेन्द्र असुरराज चमर का विषय नहीं है कि वह अपनी निश्रा (शक्ति) से ऊर्ध्व- लोक में यावत् सौधर्म -कल्प तक आए। वह अर्हत्, अर्हत्-चैत्य अथवा भावितात्मा अनगार की निश्रा के बिना ऊर्ध्व - लोक में यावत् सौधर्म कल्प तक नहीं आ सकता । अतः मेरे लिए यह महान् कष्ट का विषय है कि मैंने इन तथारूप अर्हत्, भगवान और अनगारों की अति आशातना की है। ऐसा सोच कर मैं अवधि - ज्ञान का प्रयोग करता हूं, अवधि -ज्ञान से आपको देखता हूं। देखकर 'हा! हा! अहो ! मैं मारा गया ऐसा सोच कर उस उत्कृष्ट यावत् दिव्यगति से जहां आप है वहां आता हूं और आपसे चार अंगुल दूर रहे वज्र को पकड़ ता हूं। मैं वज्र को पकड़ने के लिए यहां आया हूं, यहां समवसृत हुआ हूं, यहां सम्प्राप्त हूं और आज यहां आपके समीप आकर विहरण कर रहा हूं। इसलिए मैं आपसे क्षमायाचना १२२
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy