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________________ भगवती सूत्र श. ३ : उ. १ : सू. ३८-४५ समय मृत्यु प्राप्त कर बलिचञ्चा राजधानी में उत्पन्न हो जायेंगे। आप हमारे इन्द्र बन जायेंगे और हमारे साथ दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगते हुए विहरण करेंगे। ३९. वह बालतपस्वी तामलि उन बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार देवों और देवियों के द्वारा ऐसा कहने पर उनकी बात को न आदर देता है और न उस पर ध्यान केन्द्रित करता है, मौन रहता है। ४०. बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले वे अनेक असुरकुमार देव और देवियां मौर्यपुत्र तामलि को दूसरी बार भी, तीसरी बार भी दाईं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं यावत् (वे बोले)-देवानुप्रिय! हमारी बलिचचा राजधानी इन्द्र और पुरोहित से रिक्त है। देवानुप्रिय! हम इन्द्र के अधीन हैं, इन्द्र में अधिष्ठित हैं और हमारे सारे कार्य इन्द्र के अधीन हैं, इसलिए देवानुप्रिय! आप बलिचञ्चा राजधानी को आदर दें, उस में ध्यान केन्द्रित करें, उसकी स्मृति करें, उस प्रयोजन का निश्चय करें, निदान करें और स्थिति-प्रकल्प (वहां उत्पन्न होने का संकल्प) करें यावत् दूसरी बार और तीसरी बार भी ऐसा कहने पर वह न तो उनकी बात को आदर देता है और न उस पर ध्यान केन्द्रित करता है, मौन रहता है। ४१. वे बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार देव और देवियां बालतपस्वी तामलि के द्वारा अनादृत और अस्वीकृत होकर जिस दिशा में आए थे, उसी दिशा में चले गए। ४२. उस काल और उस समय में ईशान कल्प (दूसरा देवलोक) इंद्र और पुरोहित से रिक्त था। ४३. वह बालतपस्वी तामलि पूरे साठ हजार वर्ष के तापस-पर्याय का पालन कर दो मास की संलेखना से अपने आपको कृश बना कर अनशन के द्वारा एक सौ बीस भक्तों का छेदन कर काल-मास में काल को प्राप्त कर ईशान कल्प के ईशानावतंसक विमान में उपपात सभा के देवदूष्य से आच्छन्न देवशयनीय में अंगुल के असंख्येय भाग जितनी अवगाहना से ईशान देवेन्द्र से विरहित समय में ईशान देवेन्द्र के रूप में उपपन्न हो गया। ४४. वह तत्काल उपपन्न देवेन्द्र देवराज ईशान पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त होता है, (जैसे-आहार-पर्याप्ति से यावत् भाषा-मनः-पर्याप्ति से) ४५. बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार-देव और देवियां बालतपस्वी तामलि को मृत जान कर तथा ईशान-कल्प में देवेन्द्र रूप में उपपन्न देख कर तत्काल आवेश में आ गए, रुष्ट हो गए, कुपित हो गए। उनका रूप रौद्र बन गया। वे क्रोध की अग्नि से प्रदीप्त हो उठे। वे बलिचञ्चा राजधानी के मध्यभाग से निर्गमन करते हैं, निर्गमन कर उस उत्कृष्ट दिव्य देवगति से यावत् जहां भारतवर्ष है, जहां ताम्रलिप्ति नगरी है और जहां बालतपस्वी तामलि का मृत शरीर पड़ा हुआ है, वहां आते हैं। उसके बाएं पैर को रज्जु से बांधते हैं, तीन बार मुंह पर थूकते हैं और ताम्रलिप्ति नगरी के दुराहों, तिराहों, चौराहों, चौक, चार द्वार वाले स्थानों, राजपथों और सामान्य मार्गों पर उसको घसीटते हुए बाढ़ स्तर पर उद्घोषणा करते हए इस प्रकार बोले-कौन है यह बालतपस्वी तामलि जो स्वयं ही तापस का लिंग धारण कर प्राणामा प्रव्रज्या में प्रव्रजित हुआ था? कौन है वह ईशान-कल्प में देवेन्द्र १०९
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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