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________________ श. ३ : उ. १ : सू. ३६-३८ भगवती सूत्र में निवर्तनिक मण्डल का आलेखन कर संलेखना की आराधना में लीन हो भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन अनशन की अवस्था में मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ रहूं-ऐसी संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर ताम्रलिप्ति नगरी में जिन्हें देखा है, जिनके साथ बातचीत की है, उन पाषण्डस्थों (श्रमणों) और गृहस्थों, तापस-जीवन की स्वीकृति से पूर्व-परिचितों और तापस-जीवन में परिचितों को पूछता है, पूछकर ताम्रलिप्ति नगरी के मध्य भाग से निर्गमन करता है, निर्गमन कर वह पादुका, कमण्डलु आदि उपकरण और काष्ठमय पात्र को एकान्त स्थान में छोड़ता है। छोड़ कर ताम्रलिप्ति नगरी के उत्तरपूर्व दिग्भाग में निवर्तनिक मण्डल का आलेखन करता है। आलेखन कर वह संलेखना-आराधना से युक्त हो कर भोजन-पानी का प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन अनशन में उपस्थित हो गया। ३७. उस काल और उस समय बलिचच्चा राजधानी इन्द्र और पुरोहित से रिक्त थी। ३८. वे बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार देव और देवियां अवधिज्ञान से बाल तपस्वी तामलि को देखते हैं। उसे देख कर वे परस्पर एक दूसरे को बुलाते हैं। उन्हें बुला कर वे इस प्रकार बोले-देवानुप्रियो! बलिचञ्चा राजधानी इन्द्र और पुरोहित से रिक्त है। देवानुप्रियो! हम इन्द्र के अधीन हैं, इन्द्र में अधिष्ठित हैं और हमारे सारे काम इन्द्र के अधीन हैं। देवानुप्रियो! यह बालपतस्वी तामलि ताम्रलिप्ति नगरी के बाहर उत्तरपूर्व दिग्भाग में निवर्तनिक मण्डल का आलेखन कर, संलेखना की आराधना से युक्त हो भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन अनशन कर लेटा हुआ है। देवानुप्रियो! हमारे लिये यह श्रेयस्कर है कि बालतपस्वी तामलि को बलिचञ्चा राजधानी के लिए स्थिति-प्रकल्प (विशेष संकल्प) करवाएं। ऐसा सोच कर वे एक दूसरे के पास इस बात को स्वीकार करते हैं स्वीकार कर बलिचञ्चा राजधानी के मध्य भाग में निगमन करते हैं। निर्गमन कर वह जहां रुचकेन्द्र उत्पात पर्वत हैं, वहां आते हैं वहां आ कर वैक्रिय-समुद्घात से समवहत होते हैं। समवहत हो कर उत्तरवैक्रिय रूपों का निर्माण करते हैं। निर्माण कर वे उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, जविनी, छेकी, सैंही, शीघ्र, उद्धृत और द्रव्य देवगति से तिरछी दिशा में असंख्य द्वीप और समुद्रों के मध्य से गुजरते हुए जहां जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष, ताम्रलिप्ति नगरी और मौर्यपुत्र तामलि है, वहां आते हैं आ कर बालतपस्वी तामलि के ठीक ऊपर आकाश में स्थित होकर दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देव-द्युति, दिव्य देवानुभाग और बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधियां दिखाते हैं। दिखा कर तामलि तापस को दांई ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं। प्रदक्षिणा कर वन्दन-नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार कर वे इस प्रकार बोले-देवानप्रिय! हम बलिचञ्चा राजधानी में रहने वाले अनेक असुरकुमार देव और देवियां आपको वन्दन करते हैं, नमस्कार करते हैं, सत्कृत और सम्मानित करते हैं। आप कल्याणकारी, मंगलकारी, देवरूप और चित्ताह्लादक हैं; इसलिए हम आपकी पर्युपासना करते हैं। देवानुप्रिय! हमारी बलिचचा राजधानी इन्द्र और पुरोहित से रिक्त हैं। देवानुप्रिय! हम इन्द्र के अधीन हैं, इन्द्र में अधिष्ठित हैं और हमारे सारे काम इन्द्र के अधीन हैं, इसलिए देवानुप्रिय! आप बलिचञ्चा राजधानी को आदर दें, उसमें ध्यान केन्द्रित करें, उसकी स्मृति करें। उस प्रयोजन का निश्चय करें, निदान करें और स्थिति-प्रकल्प (वहां उत्पन्न होने का संकल्प) करें। इससे आप मृत्यु के १०८
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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