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________________ भगवती सूत्र श. ३ : उ. १ : सू. १४-१७ ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा। सामानिक, तावत्त्रिंशक, लोकपाल और पटरानियां उनकी विक्रिया की वक्तव्यता चमर के सामानिक, तावत्त्रिंशक, लोकपाल और पटरानियों के समान है । केवल इतना अन्तर है -ये संख्येय द्वीप - समुद्रों को अपने रूपों से आकीर्ण करने में समर्थ हैं । १५. इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार-, वानमन्तर- और ज्योतिष्क- देवों के संबंध में भी ज्ञातव्य है । विशेष बात यह है कि दक्षिण दिशा के सब देवों के संबंध में अग्निभूति प्रश्न करते हैं और उत्तर दिशा के सब देवों के संबंध में वायुभूति प्रश्न करते हैं । १६. भन्ते ! इस सम्बोधन से संबोधित कर द्वितीय गौतम भगवान् अग्निभूति अनगार श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करते हैं, वन्दन - नमस्कार कर इस प्रकार बोले- भन्ते ! यदि ज्योतिरिन्द्र ज्योतीराज इतना महान् ऋद्धि वाला यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है, तो भन्ते ! देवेन्द्र देवराज शक्र कितनी महान् ऋद्धि वाला है यावत् कितनी विक्रिया करने में समर्थ है ? गौतम! देवेन्द्र देवराज शक्र महान् ऋद्धि वाला है यावत् महान् सामर्थ्य वाला है । यह बत्तीस लाख विमानावास, चौरासी हजार सामानिक देव, तेतीस तावत्त्रिंशक देव, चार लोकपाल, आठ सपरिवार पटरानियां तीन परिषद, सात सेनाएं, सात सेनापति, तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक-देव तथा अन्य देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ रहता है। वह इतनी महान् ऋद्धि वाला है यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है। इस प्रकार जैसे चमर की वक्तव्यता है वैसे शक्र की है, केवल इतना अन्तर है शक्र दो सम्पूर्ण जम्बूद्वीप द्वीपों को अपने रूपों से आकीर्ण कर सकता है, शेष वक्तव्यता उसी प्रकार है । गौतम! देवेन्द्र देवराज शक्र की विक्रिया का यह इतना विषय केवल विषय की दृष्टि से प्रतिपादित है, शक्र ने क्रियात्मक रूप में न तो कभी ऐसी विक्रिया की, न करता है और न करेगा । १७. भन्ते ! यदि देवेन्द्र देवराज शक्र इतनी महान् ऋद्धि वाला यावत् इतनी विक्रिया करने में समर्थ है, तो भन्ते! तिष्यक देव कैसी महान ऋद्धि वाला है? वह आपका अन्तेवासी तिष्यक नामक अनगार जो प्रकृति से भद्र और प्रकृति से उपशान्त था, जिसकी प्रकृति में क्रोध, मान, माया और लोभ प्रतनु (पतले ) थे, जो मृदु-मार्दव से सम्पन्न, आत्मलीन और विनीत था । उसने अविच्छिन्न रूप से दो-दो दिन के उपवास से तपःकर्म की साधना द्वारा आत्मा को भावित करते हुए पूरे साठ भक्तों को छेदन किया, वह आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्ण दशा में कालमास में काल को प्राप्त हो गया । वह सौधर्म कल्प में अपने विमान में उपपात सभा के देवदूष्य से आच्छन्न देवशयनीय अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी अवगाहना से देवेन्द्र देवराज शक्र के सामानिक देव के रूप में उपपन्न हुआ । तिष्यक देव तत्काल उपपन्न होते ही पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को प्राप्त होता है, जैसे- आहार पर्याप्ति से, शरीर पर्याप्ति से इन्द्रिय पर्याप्ति से, आनापान (श्वोसोच्छ्वास)-पर्याप्ति से और भाषा - मन पर्याप्ति से । १०२
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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