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________________ भगवती सूत्र श. २: उ. १: सू. ६२-६६ सोलहवें मास में बिना विराम चौतीसवां चौतीसवांभक्त (सोलह-सोलह दिन का उपवास) तपः कर्म करता है। दिन में स्थान - कायोत्सर्ग - मुद्रा और उकडू आसन में बैठ सूर्य के सामने मुंहकर आतापनभूमि में आतापना लेता है और रात्रि में विरासन में बैठता है, निर्वस्त्र रहता है। ६३. वह स्कन्दक अनगार गुणरत्न-संवत्सर तपःकर्म की यथासूत्र, यथाकल्प यावत् आराधना कर जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं वहां आता है, आकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दननमस्कार करता है, वन्दन - नमस्कार कर अनेक चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त, दशमभक्त, द्वादशभक्त, अर्धमास और मास - क्षपण - इस प्रकार विचित्र तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ विहरण कर रहा है। ६४. वह स्कन्दक अनगार उस प्रधान, विपुल, अनुज्ञात, प्रगृहीत, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय, शोभायित, उत्तरोत्तर वर्धमान, उदात्त, उत्तम, उदार और महान् प्रभावी तपःकर्म से सूखा, रूखा, मांस - रहित, चर्म से वेष्टित अस्थि वाला, उठते-बैठते समय किट किट शब्द से युक्त, कृश और धमनियों का जाल- मात्र हो गया । वह प्राण-बल से चलता है और प्राणबल से ठहरता है, वह वचन बोलने के पश्चाद् भी ग्लान होता है, वचन बोलता हुआ भी ग्लान होता है और वचन बोलूंगा यह चिन्तन करता हुआ भी ग्लान होता है । जैसे कोई इंधन से भरी हुई गाड़ी, पत्तों से भरी हुई गाड़ी, पत्र सहित तिलों और मिट्टी के बर्तनों से भरी हुई गाड़ी, एरण्ड की लकड़ियों से भरी हुई गाड़ी तथा कोयलों से भरी हुई गाड़ी ताप लगने से सुखी हुई, सशब्द चलती है और सशब्द ठहरती है, इसी प्रकार स्कन्दक अनगार सशब्द (किट किट की ध्वनि - सहित) चलता है और सशब्द ठहरता है, वह तप से उपचित और मांस - शोणित से अपचित हो गया । वह राख के ढेर से ढकी हुई अग्नि की भांति तप, तेज तथा तपस्तेज की श्री से अतीव - अतीव उपशोभित होता हुआ, उपशोभित होता हुआ रहता है 1 ६५. उस काल और उस समय राजगृह नगर में श्रमण भगवान् महावीर का समवसरण था यावत् परिषद् चली गई । ६६. किसी एक समय मध्यरात्रि में धर्म- जागरिका करते हुए उस स्कन्दक अनगार के मन में आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ मैं इस विशिष्टरूप वाले प्रधान, विपुल, अनुज्ञात, प्रगृहीत, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय, श्रीसम्पन्न, उत्तरोत्तर वर्धमान, उदात्त, उत्तम, उदार और महानप्रभावी तपःकर्म से सूखा, रूखा, मांस - रहित, चर्म से वेष्टित अस्थि - वाला, उठते-बैठते समय किट किट शब्द युक्त, कृश और धमनियों का जाल - मात्र हो गया हूं। मैं प्राणबल से चलता हूं और प्राणबल से ठहरता हूं। मैं वचन बोलने के पश्चाद् भी ग्लान होता हूं और वचन बोलता हुआ भी ग्लान होता हूं । वचन बोलूंगा यह चिन्तन करता हुआ भी ग्लान होता हूं। जैसे कोई इंधन से भरी हुई गाड़ी, पत्तों से भरी हुई गाड़ी, पत्र सहित तिलों और मिट्टी के बर्तनों से भरी हुई गाड़ी, एरंड की लकड़ियों से भरी हुई गाड़ी तथा कोयलों से भरी हुई गाड़ी ताप लगने से सूखी हुई सशब्द चलती है और सशब्द ठहरती है, इसी प्रकार मैं भी सशब्द (किट किट की ध्वनि - सहित) चलता हूं और सशब्द ठहरता हूं। इस समय मुझ में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार ७८
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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