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________________ श. २ : उ. १ : सू. ५३-५९ भगवती सूत्र करवट लेनी चाहिए, इस प्रकार भोजन करना चाहिए, इस प्रकार बोलना चाहिए, इस प्रकार पूर्ण जागरुकता से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के प्रति संयम से संयत रहना चाहिए। इस अर्थ में किञ्चित् भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। ५४. वह कात्यायन-सगोत्र स्कन्दक भगवान् महावीर के इस प्रकार के धार्मिक उपदेश को सम्यक् प्रकार से स्वीकार करता है-उसे भली-भांति जानकर वैसे ही (संयमपूर्वक) चलता है, वैसे ही ठहरता है, वैसे ही बैठता है, वैसे ही करवट लेता है, वैसे ही भोजन करता है, वैसे ही बोलता है, वैसे ही पूर्ण जागरुकता से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के प्रति संयम से संयत रहता है। इस अर्थ में वह प्रमाद नहीं करता। ५५. कात्यायन-सगोत्र स्कन्दक अनगार हो गया वह विवेकपूर्वक चलता है, विवेकपूर्वक बोलता है, विवेकपूर्वक आहार की एषणा करता है, विवेकपूर्वक वस्त्रपात्र आदि को लेता और रखता है, विवेकपूर्वक मल, मूत्र, श्लेष्मा, नाक के मैल, शरीर के गाढ़े मैल का परिष्ठापन (विसर्जन) करता है, मन की संगत प्रवृत्ति करता है, वचन की संगत प्रवृत्ति करता है, शरीर की संगत प्रवृत्ति करता है, मन का निरोध करता है, वचन का निरोध करता है, शरीर का निरोध करता है, अपने आपको सुरक्षित रखता है, इन्द्रियों को सुरक्षित रखता है, ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखता है, संग (आसक्ति) का त्याग करता है, अनाचरण करने में लज्जा करता है, कृतार्थता का अनुभव करता है, समर्थ होने पर भी क्षमा करता है, इन्द्रियजयी है, अतिचार की विशुद्धि करता है, पौद्गलिक समृद्धि का संकल्प नहीं करता, उत्सुकता से मुक्त रहता है, भावधारा को आत्मोन्मुखी रखता है, सुश्रामण्य में रत है, इन्द्रिय और मन का निग्रह करता है और इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन (जिन-शासन) को ही आगे रख कर चलता है। ५६. श्रमण भगवान् महावीर कयंजला नगरी और छत्रपलाश चैत्य से पुनः निष्क्रमण करते हैं, पुनः निष्क्रमण कर आसपास जनपद में विहार कर रहे हैं। ५७. वह स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन करता है, अध्ययन कर जहां श्रमण भगवान् महावीर हैं वहां आता है, आकर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला-भन्ते! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर एकमासिकी प्रथम भिक्षु-प्रतिमा की उपसम्पदा स्वीकार कर विहार करना चाहता हूं। देवानुप्रिय! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबन्ध मत करो। ५८. वह स्कन्दक अनगार श्रमण भगवान् महावीर की अनुज्ञा प्राप्त कर हृष्ट चित्त वाला हुआ यावत् वह भगवान् को नमस्कार कर मासिकी भिक्षुप्रतिमा की उपसम्पदा स्वीकार कर विहार कर रहा है। ५९. वह स्कन्दक अनगार मासिकी भिक्षुप्रतिमा का यथासूत्र, यथाकल्प, यथामार्ग, यथातत्त्व, यथासाम्य, सम्यक् प्रकार से काया से स्पर्श करता है, पालन करता है, उसे शोधित करता है, पारित करता है, पूरित करता है, कीर्तित करता है, अनुपालित करता है, आज्ञा से उसकी आराधना करता है तथा सम्यक् प्रकार से काया से उसका स्पर्श कर, उसका पालन, शोधन, ७६
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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