SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र श. २ : उ. १ : सू. १६-२४ १६. भंते! याचितभोजी निर्ग्रन्थ, जिसने भव का निरोध किया है और भव के विस्तार का निरोध किया है, जिसने संसार को प्रहीण किया है और संसार-वेदनीय-कर्म को भी प्रहीण किया है, जिसने संसार को व्युच्छिन्न किया है और संसार-वेदनीय-कर्म को भी व्युच्छिन्न किया है, जिसने अपना प्रयोजन सिद्ध किया है और प्रयोजन-पूर्ति के लिए करणीय कार्यों को भी सिद्ध किया है, क्या फिर से इत्थंस्थ (तिर्यञ्च आदि के रूपों) को प्राप्त नहीं होता? हां, गौतम! याचितभोजी निर्ग्रन्थ, जिसने भव का निरोध किया है और भव के विस्तार का निरोध किया है, जिसने संसार को प्रहीण किया है और संसार-वेदनीय-कर्म को भी प्रहीण किया है, जिसने संसार को व्युच्छिन्न किया है और संसार-वेदनीय-कर्म को भी व्युच्छिन्न किया है, जिसने अपना प्रयोजन सिद्ध किया है और प्रयोजन-पूर्ति के लिए करणीय कार्यों को भी सिद्ध किया है, फिर से इत्थंस्थ (तिर्यञ्च-आदि के रूपों) को प्राप्त नहीं होता। १७. भंते! वह किस शब्द के द्वारा वाच्य होता है? गौतम! वह 'सिद्ध' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह 'बुद्ध' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह 'मुक्त' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह 'पारगत' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह 'परंपरगत' शब्द के द्वारा वाच्य होता है। वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत, अन्तकृत, सर्व -दुख-प्रहीण-इस रूप में वाच्य होता है। १८. भंते! वह ऐसा ही है, भंते! वह ऐसा ही है-इस प्रकार भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं, वन्दन-नमस्कार कर संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं। १९. श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर और गुणशिलक चैत्य से पुनः निष्क्रमण करते हैं, पुनः निष्क्रमण कर राजगृह के आसपास जनपद में विहरण कर रहे हैं। स्कन्दककथा-पद २०. उस काल और उस समय में कयंजला नामक नगरी थी-नगर-वर्णन । २१. उस कयंजला नगरी के बाहर उत्तरपूर्व दिग्भाग (ईशानकोण) में छत्र-पलाशक नामक चैत्य था-चैत्य का वर्णन। २२. उत्पन-ज्ञान-दर्शन के धारक, अर्हत्, जिन, केवली, श्रमण भगवान् महावीर जहां कयंजला नगरी और छत्रपलाशक चैत्य है, वहां आते हैं, वहां आकर वे प्रवास-योग्य स्थान की अनुमति लेते हैं, अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं यावत् भगवान् का समवसरण । परिषद् का नगर से निष्क्रमण। २३. उस कयंजला नगरी से कुछ दूरी पर श्रावस्ती नामक नगरी थी-नगर-वर्णन । २४. उस श्रावस्ती नगरी में गर्दभाल का अन्तेवासी कात्यायन-सगोत्र स्कन्दक नाम का परिव्राजक रहता है। वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वणवेद- ये चार वेद, पांचवां इतिहास और छठा निघण्टु-इनका सांगोपांग रहस्य-सहित सारक (प्रवर्तक), धारक और पारगामी था। वह छहों अंगों का वेत्ता, षष्टितन्त्र का विशारद, संख्यान, शिक्षा, कल्प, ६७
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy