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________________ श. १ : उ. ९ : सू. ४३३-४३७ भगवती सूत्र ब्रह्मचर्यवास, भिक्षा के लिए गृहस्थों के घर प्रवेश करना, लाभ-अलाभ, उच्चावच, ग्रामकण्टक, बाईस परीषहों और उपसर्गों को सहन किया जाता है, उस प्रयोजन की आराधना करता है, उसकी आराधना कर चरम उच्छ्वास-निःश्वास से सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत्त और सब दुःखों को क्षीण करने वाला हो जाता है। अप्रत्याख्यानक्रिया-पद ४३४. भन्ते! इस सम्बोधन के साथ भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार कर उन्होंने इस प्रकार कहा-भन्ते! श्रेष्ठी, निर्धन, रंक और राजा के क्या अप्रत्याख्यान-क्रिया समान होती है? हां, गौतम! श्रेठी, निर्धन, रंक और राजा के अप्रत्याख्यान-क्रिया समान होती है। ४३५. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-श्रेष्ठी, निर्धन, रंक और राजा के अप्रत्याख्यानक्रिया समान होती है? गौतम! अविरति की अपेक्षा से। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-श्रेष्ठी, निर्धन, रंक और राजा के अप्रत्याख्यान-क्रिया समान होती है। आधाकर्म-पद ४३६. आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ क्या बांधता है? क्या करता है? क्या चय करता है? क्या उपचय करता है? गौतम! आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण-निर्ग्रन्थ आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिल-बन्धन-बद्ध प्रकृतियों को गाढ़-बंधन-बद्ध करता है, अल्पकालिक स्थिति वाली प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली करता है, मन्द अनुभाव वाली प्रकृतियों को तीव्र अनुभाव वाली करता है, अल्पप्रदेश-परिमाण वाली प्रकृतियों को बहुप्रदेश-परिमाण वाली करता है; आयुष्य-कर्म का बन्ध कदाचित् करता है और कदाचित् नहीं करता, वह असातवेदनीय-कर्म का बहुत-बहुत उपचय करता है और आदि-अन्तहीन दीर्घ पथ वाले चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपरिवर्तन करता है। ४३७. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण-निर्ग्रन्थ आयुष्य-कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिल-बन्धन-बद्ध प्रकृतियों को गाढ़-बंधनबद्ध करता है यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपरिवर्तन करता है? गौतम! आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण निग्रंथ आत्मा से धर्म का अतिक्रमण करता है। आत्मा से धर्म का अतिक्रमण करता हुआ वह पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीवों के प्रति निरपेक्ष हो जाता है। वह जिन जीवों के शरीरों का भोजन करता है, उन जीवों के प्रति भी निरपेक्ष हो जाता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-आधाकर्म भोजन करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ आयुष्य-कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिल-बन्धन-बद्ध प्रकृतियों को गाढ़-बन्धन-बद्ध करता है यावत् चतुर्गत्यात्मक संसार-कान्तार में अनुपरिवर्तन करता है। ५८
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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