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________________ भगवती सूत्र श. १ : उ. ९ : सू. ४२६-४३३ आर्य! आत्मा हमारा संवर है, आर्य! आत्मा हमारे संवर का अर्थ है। आर्य! आत्मा हमारा विवेक है, आर्य! आत्मा हमारे विवेक का अर्थ है। आर्य! आत्मा हमारा व्युत्सर्ग है, आर्य! आत्मा हमारे व्युत्सर्ग का अर्थ है। ४२७. तब वैश्यपुत्र कालास अनगार ने भगवान् स्थविरों से इस प्रकार कहा- आर्य! यदि आत्मा सामायिक है, आत्मा आपके सामायिक का अर्थ है यावत् आर्य! आत्मा आपका व्युत्सर्ग है, आत्मा आपके व्युत्सर्ग का अर्थ है, तो क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग कर आर्य! आप किसलिए गर्दा (पाप के प्रति कुत्सा का भाव) करते हैं? कालास! हम संयम के लिए गर्दा करते हैं। ४२८. भन्ते! क्या गर्दा संयम है? अगर्दा संयम है? कालास! गर्दा संयम है, अगर्दा संयम नहीं है। गर्हा सर्व बाल-भाव का परिज्ञा के द्वारा प्रत्याख्यान कर सब दोषों का अपनयन करती है। इस प्रकार हमारा आत्मा संयम में उपहित होता है, इस प्रकार हमारा आत्मा संयम में उपचित होता है, इस प्रकार हमारा आत्मा संयम में उपस्थित होता है। ४२९. इस बिन्दु पर वह वैश्यपुत्र कालास अनगार संबुद्ध होकर भगवान् स्थविरों को वंदननमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर उसने इस प्रकार कहा-भन्ते! पहले मैंने अज्ञान, अश्रवण, अबोधि और अनभिगम के कारण अदृष्ट, अश्रुत, अस्मृति, अविज्ञात, अव्याकृत, अव्यवच्छिन्न, अनियूंढ और अनुपधारित इन पदों के इस अर्थ पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं की। भन्ते! अब ज्ञान, श्रवण, बोधि और अभिगम के द्वारा दृष्ट, श्रुत, स्मृत, विज्ञात, व्याकृत, व्यवच्छिन्न, नियूंढ और उपधारित-इन पदों के इस अर्थ पर मैं श्रद्धा करता हूं, प्रतीति करता हूं, रुचि करता हूं। यह वैसा ही है जैसा आप कह रहे हैं। ४३०. भगवान् स्थविरों ने वैश्यपुत्र कालास अनगार से इस प्रकार कहा-हम जिस प्रकार यह कह रहे हैं उस पर आर्य! श्रद्धा करो, आर्य! प्रतीति करो, आर्य! रुचि करो। ४३१. अब वह वैश्यपुत्र कालास अनगार भगवान् स्थविरों को वन्दन-नमस्कार करता है, वन्दन-नमस्कार कर उसने इस प्रकार कहा-भन्ते! मैं आपके पास चतुर्याम धर्म से (मुक्त होकर) सप्रतिक्रमण-पञ्चमहाव्रतात्मक धर्म को स्वीकार कर विहार करना चाहता हूं। देवानुप्रिय! जैसे तुम्हें सुख हो। प्रतिबंध मत करो। ४३२. वैश्यपुत्र कालास अनगार भगवान् स्थविरों को वन्दन-नमस्कार करता है, वन्दननमस्कार कर चतुर्याम धर्म से (मुक्त होकर) सप्रतिक्रमण पञ्चमहाव्रतात्मक धर्म को स्वीकार कर विहार करता है। ४३३. वह वैश्यपुत्र कालास अनगार बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन करता है, पालन कर जिस प्रयोजन से नग्न-भाव, मुण्ड-भाव, स्नान न करना, दतौन न करना, छत्र धारण न करना, पादुका न पहनना, भूमि-शय्या, फलक-शय्या, काष्ठ-शय्या, केश-लोच, ५७
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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