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________________ श. १ : उ. ७ : सू. ३५४-३५७ भगवती सूत्र जाता है। उस अंतर (युद्धकाल) में यदि वह मरण-काल को प्राप्त होता है, तो नैरयिकों में उपपन्न होता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है कोई उपपन्न होता है, कोई उपपन्न नहीं होता। गर्भ का देवलोकगमन-पद ३५५. भन्ते! क्या गर्भ-गत जीव देवलोकों में उपपन्न होता है? गौतम! कोई उपपन्न होता है, कोई उपपन्न नहीं होता। ३५६. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है कोई उपपन्न होता है, कोई उपपन्न नहीं होता? गौतम! सब पर्याप्तियों से पर्याप्त, संज्ञी-पंचेन्द्रिय गर्भ-गत शिशु तथारूप श्रमण-माहन के पास एक भी आर्य धार्मिक सुवचन सुनता है, अवधारण करता है। उससे उसके मन में संवेग-जनित श्रद्धा उत्पन्न होती है। वह तीव्र धर्म-अनुराग से अनुरक्त हो जाता है। वह जीव (गर्भ-गत शिशु) धर्म-कामी, पुण्य-कामी, स्वर्ग-कामी और मोक्ष-कामी, धर्म-कांक्षी, पुण्य-कांक्षी, स्वर्ग-कांक्षी और मोक्ष-कांक्षी तथा धर्म-पिपासु, पुण्य-पिपासु, स्वर्ग-पिपासु और मोक्ष-पिपासु होकर उस धर्म, पुण्य आदि में ही अपने चित्त, मन, लेश्या, अध्यवसाय तीव्र अध्यवसान का नियोजन करता है। वह उसी विषय में उपयुक्त हो जाता है। उसके लिए अपने सारे करणों (इन्द्रियों) का समर्पण कर देता है। वह उसकी भावना से भावित हो जाता है। उस अंतर (धर्माराधन-काल) में यदि वह मरण-काल को प्राप्त होता है. तो देवलोकों में उपपन्न होता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कोई उपपन्न होता है, कोई उपपत्र नहीं होता। ७. भन्ते! क्या गर्भ-गत जीव उत्तान-शयन. पार्श्व-शयन अथवा आन-कुब्जक (आम्र की भांति कुब्ज) आसन की मुद्रा में रहता है? खड़ा होता है? बैठता है? सोता है? माता के सोने पर सोता है? उसके जागने पर वह जागता है? उसके सुखी होने पर वह सुखी होता है? उसके दुःखी होने पर वह दुःखी होता है? हां, गौतम! गर्भ-गत जीव उत्तान-शयन, पार्श्व-शयन अथवा आम्र-कुब्जक आसन की मुद्रा में रहता है, खड़ा होता है, बैठता है, सोता है, माता के सोने पर सोता है, उसके जागने पर वह जागता है, उसके सुखी होने पर वह सुखी होता है, उसके दुःखी होने पर दुःखी होता है। वह जीव प्रसव-काल के समय (यदि) सिर या पैरों के द्वारा बाहर आता है, सीधा आता है; (यदि) वह टेढ़ा होकर आता है, तो मृत्यु को प्राप्त होता है। उस नवजात शिशु के (यदि) वर्ण-बाह्य (अप्रशस्त कोटिवाले) कर्म बद्ध, स्पृष्ट, निधत्त, कृत, प्रस्थापित, अभिनिविष्ट (तीव्र अनुभाव के रूप में स्थापित), अभिसमन्वागत (उदय के अभिमुख) और उदीर्ण हैं वे उपशांत नहीं होते, तो वह कुत्सित रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाला होता है। वह हीन, दीन, अनिष्ट, अकांत, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, और अमनोहर स्वरवाला तथा अनादेय वचन वाला होता है। उस नवजात शिशु के (यदि) वर्ण-बाह्य (अप्रशस्त कोटिवाले) कर्म बद्ध, स्पृष्ट, निधत्त, कृत, प्रस्थापित, अभिनिविष्ट, अभिसमन्वागत और उदीर्ण नहीं ४६
SR No.032416
Book TitleBhagwati Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages546
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size14 MB
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