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________________ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख गर्दभों से कृषिकार्य करवाया था २७ । (४) रुखचेतिय : - खारवेल-शिलालेख के अन्त में दाँई ओर रुखचेत्तिय अर्थात् चैत्यवृक्ष उत्कीर्णित है। जैन-परम्परा में इसका बड़ा महत्व है, क्योंकि इसे देवों द्वारा पूजनीय तथा जिन-प्रतिमाओं को आश्रयस्थल देने वाला वृक्ष माना गया है। यथा -चेत्तरूणं मूलं पत्तेक्कं चउदिसासु पंचित्त चेति जिणप्पडिमा पलियंकठ्ठिया सुरहेहिं महणिज्जा २८ | __ अर्थात् चैत्यवृक्षों के मूल में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में पद्मासन से स्थित और देवों द्वारा पूजनीय ५-५ जिन-प्रतिमाएँ विराजमान की जाती हैं। इस महान् वृक्ष को सौषधि के रूप में माना गया है। द्रव्यानुयोग एवं करणानुयोग संबंधी जैन-साहित्य में उक्त चैत्यवृक्ष का विशद् वर्णन किया गया है। जैन-मान्यता के अनुसार जैन संस्कृति में पूर्वोक्त णमोकार-मन्त्र एवं चतुर्विध मांगलिक प्रतीकों का महत्व तो है ही, स्वस्थ समाज के निर्माण, राष्ट्र की उत्तरोत्तर समृद्धि एवं छहों ऋतुओं को सम बनाए रखने के लिए भी वे आवश्यक माने गए हैं। इसीलिए हाथीगुम्फा-शिलालेख में उनका निदर्शन केवल व्यक्तिगत रूप से नहीं, बल्कि सर्वसम्मत तथा लोकपरम्परा के अनुकूल किया गया है। जैनधर्मानुयायियों के मांगलिक कार्यों में तो आज भी सारे भारत में उक्त परम्परा प्रचलित है। सम्राट खारवेल के बाद उक्त कलिंग-जिन का क्या हुआ, इसकी जानकारी नहीं मिलती। बहुत सम्भव है कि सदियों बाद किन्हीं कारणों से उसे पुनः मगध ले आया गया हो और किसी कारण से वह खण्डित हो गई हो और पटना के एक उत्खनन में प्राप्त छिन्नमस्तक तीर्थंकर आदिनाथ की मर्ति वही प्राचीन कलिंग-जिन हो, जो इस समय पटना-म्यूजियम में सुरक्षित है। अथवा, ऋषभदेव का अपरनाम जगतनाथ (जगन्नाथ) भी है। अतः कभी-कभी ऐसी भी चर्चाएँ सुनने को मिलती हैं कि वर्तमान जगन्नाथपुरी के मन्दिर में अभी भी वह कलिंग-जिन सुरक्षित है। वस्तुतः उस दिशा में निर्भीक एवं निष्पक्ष खोज करने की तत्काल आवश्यकता है। शिलालेख की ११वीं पंक्ति के अनुसार रणधुरन्धर खारवेल ने तीसरी बार दक्षिण भारत की ओर पुनः प्रयाण किया। इस प्रसंग में दक्षिण भारत को दो भौगोलिक इकाइयों में विभक्त किया जा सकता है-पहिला तमिल-(अथवा द्रमिल्ल या द्रविड़) संघ तथा दूसरा महारट्ठ-संघ | शत्रु-राजाओं के आक्रमण से बचने के लिए तमिलों ने, जैसा कि पूर्व में भी लिखा जा चुका है, वीर निर्वाण संवत् के १३०० वर्ष पूर्व में पार्श्ववर्ती कुछ राज्यों २७. खारवेल-शिलालेख पं.११, २८. तिलोयपण्णत्ती ३/१३७ तथा त्रिलोकसार, गा. २१५
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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