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________________ २४ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख को मिलाकर एक संघात राष्ट्रकुल बना लिया था । खारवेल के सशक्त आक्रमण से वह छिन्न-भिन्न हो गया। इस तमिल-कुल की उस समय दो राजधानियाँ थीं- उरगपुर (त्रिचिरापल्ली) एवं कोंची। जैन इतिहास में इन दोनों नगरों का सांस्कृतिक एवं साहित्यिक दृष्टि से विशेष महत्व है। खारवेल की विजय के बाद तथा उसके दीर्घगामी प्रभाव से सारा तमिल-प्रदेश जैन संस्कृति का पुनः एक महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया । जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि प्रारम्भ में तमिलदेश की भाषाएँ अपरिष्कृत अथवा साहित्य-लेखन के अयोग्य मानी जाती थीं किन्तु स्थानीय जनभाषाओं के प्रेमी जैनाचार्यों ने उन्हें आवश्यकतानुसार परिष्कृत कर तथा उसे साहित्य-लेखन के योग्य बनाकर उनमें व्याकरण, ज्योतिष, साहित्य, कोष, धर्म, सिद्धान्त, व्यवहार, राजनीति, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य आदि सभी विषयों पर प्रचुर मात्रा में साहित्य लिखा । उक्त साहित्य-लेखन की प्रक्रिया भी बड़ी दुरूह किन्तु बड़ी वैज्ञानिक थी। कहा जाता है कि जिस समय वहाँ साहित्य-लेखन की योजना बनाई गई, उस समय सर्वप्रथम एक संघ तथा उसकी एक विशेषज्ञ-समिति बनाई गई, जिसका प्रथम नियम था कि मानव मूल्यों को उन्नत बनाने हेतु ही साहित्य लिखा जाए, जो उच्चस्तरीय एवं सार्वजनीन हो । उस संस्था का नाम था संगम (अर्थात् साहित्यकार- संसद Academic Council) । संगम के इस कड़े रुख का सुफल यह हुआ कि आद्यकालीन समस्त तमिल जैन - साहित्य उच्चस्तरीय बना तथा विश्व - साहित्य के उच्चतम कोटि के ग्रन्थरत्नों में उसकी गणना की गई। ऐसे ग्रन्थों में से तिरुवल्लुवर कृत थिरुक्कुरल-काव्य तथा मणिमेखलै, नालडियार, जीवक-चिन्तामणि शिलप्पदिकार जैसे अनेक ग्रन्थरत्न अग्रगण्य माने गए । तात्पर्य यह कि अपरिष्कृत एवं साहित्य-लेखन के लिए अयोग्य समझी जाने वाली ग्राम्य तमिल भाषा को भी जैनाचार्यों ने साहित्य-लेखन के योग्य बनाया। यह जैन-साहित्य-तमिल-प्रदेश के आदिकालीन साहित्य के रूप में सर्वमान्य किया गया है। उस ऐतिहासिक विरासत में सम्राट खारवेल के दीर्घगामी प्रेरक-परोक्ष-प्रभाव रूप ऐतिहासिक योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। तमिल देश में इस प्रकार की सांस्कृतिक एवं साहित्यिक गतिविधियाँ पाँचवीं सदी ईस्वी तक चलती रहीं। उसके बाद उसमें क्रमशः हास होने लगा । समाज एवं राष्ट्र को जीवन्त बनाए रखने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में समय-समय पर उत्सव, गीत, नृत्य, वादित्र, धार्मिक आयोजन मुनि सम्मेलन आदि समारोहों का होते रहना अत्यावश्यक है। इससे जीवन में सरसता, उत्साह, सामाजिक सौहार्द, सौमनस्य एवं राष्ट्रिय भावनाएँ जागृत रहती हैं। इसके लिए शासक को स्वयं ही दूरदृष्टि सम्पन्न, कार्य-कुशल एवं कलाओं के प्रति उसमें उत्साह एवं सुरुचि सम्पन्न होना आवश्यक है। खारवेल में संयोग से ये सभी गुण विद्यमान थे २६ । शिलालेख की पाँचवीं पंक्ति के अनुसार खारवेल स्वयं गन्धर्व-विद्या में प्रवीण था तथा वह कलिंग एवं विजित राज्यों में विविध सांस्कृतिक आयोजन कराता रहता था। २६. खारवेल शिलालेख पं. ४-५ -
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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