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________________ २२ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख जैनधर्म कलिंग का राष्ट्रधर्म था । अतः कलिंग की परम्परा प्राप्त जैन संस्कृति की लोकप्रियता की अभिवृद्धि में खारवेल के योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता । उक्त शिलालेख में उत्कीर्णित जैन- संस्कृति के उक्त ४ प्रतीक चिन्ह निम्न प्रकार हैं (१) वर्धमंगलः - यह चिन्ह शिलालेख की दूसरी पंक्ति की बाँई ओर उत्कीर्णित है, जो निर्ग्रन्थ-संस्कृति एवं जैन तीर्थंकरों का परिचायक उसका एक अत्यावश्यक अंग है। इस चिन्ह से जन-भावना की भी जानकारी मिलती है, कि सम्राट खारवेल एवं उसकी प्रजा जैन- संस्कृति एवं धर्म की परमभक्त थी । (२) स्वस्तिक : - स्वस्तिक का यह चिन्ह उक्त शिलालेख की चौथी एवं पाँचवीं पंक्ति के मध्य बाएँ पार्श्व में उत्कीर्णित है । यह चिन्ह जैन- परम्परा में मान्य जीवों की विभिन्न श्रेणियों का दिग्दर्शक, एक ऐसा प्रतीक चिन्ह है, जिसके अनुसार तीनों लोकों में प्रधान रूप से चार प्रकार के जीव रहते हैं - मनुष्य, देव, तिर्यंच एवं नारकी जीव । जैनाचार्यों ने इन जीवों के विविध प्रकार के सूक्ष्मातिसूक्ष्म सहस्राधिक भेद-प्रभेद कर उनकी परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं, जो आधुनिक Biological Sciences की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण एवं रोचक सिद्ध हुई हैं और जिन्होंने सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जगदीशचन्द्र बसु को भी प्रभावित किया था जिन्होंने जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित एकेन्द्रियकायिक वनस्पति को अपने वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा संवेदनशील प्राणी घोषित कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। इसी स्वस्तिक के ऊपरी शिखर पर उत्कीर्णित एक अर्धचन्द्र पर तीन बिन्दु रखे गये हैं, जो कि जैन संस्कृति के सारभूत-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रय एवं मुक्ति मार्ग के प्रतीक चिन्ह हैं । (३) नान्दिपद : कलिंग-जिन अर्थात् ऋषभदेव की पहिचान का चिन्ह जैन-परम्परा के अनुसार नान्दि अर्थात् वृषभ (बैल) है। अतः ऋषभदेव के प्रति आदर देने हेतु शिलालेख की मध्यान्त की एक पंक्ति के दाँई ओर नान्दि-पद अर्थात् वृषभ के चरण चिन्ह उत्कीर्णित हैं। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, जैन इतिहास के अनुसार ऋषभदेव का कलिंग से ऋग्वेद- पूर्वकाल से ही घनिष्ठ सम्बन्ध था। सारा कलिंग देश उनके चरणों का परम भक्त था । अतः उसी की अभिव्यक्ति के लिए खारवेल ने अपने शिलालेख में नान्दि-पद को उत्कीर्णित कराया था । खारवेल शिलालेख से विदित होता है कि नान्दिपदों को सम्मान देने की दृष्टि से ही सम्राट खारवेल ने पिथंड में वृषभों (बैलों) के स्थान पर
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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