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________________ ७४ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख कवियों के लिए सार्वजनिक सम्मान ___ अपभ्रंश-काव्य-प्रशस्तियों में विद्वान-कवियों के सार्वजनिक सम्मानों की भी कुछ चर्चाएँ उपलब्ध होती हैं। इनसे सामाजिक मानसिकता तथा उसकी अभिरुचियों का पता चलता है। "सम्मत्तगुणणिहाणकव्व" नामकी पाण्डुलिपि की प्रशस्ति से विदित होता है कि महाकवि रइधू ने जब अपने उक्त काव्य-रचना समाप्तिकी की और अपने आश्रयदाता कमलसिंह संघवी को समर्पित किया, तब संघवी जी इतने आत्मविभोर हो उठे कि उसकी पाण्डुलिपि को लेकर नाचने-गाने लगे। इतना ही नहीं, उन्होंने उक्त कृति एवं कृतिकार दोनों को ही राज्य के सर्वश्रेष्ठ शुभ्रवर्ण वाले हाथी पर विराजमान कर गाजे-बाजे के साथ सवारी निकाली और उनका सार्वजनिक सम्मान कर उन्हें बेशकीमत स्वर्णालंकार, द्रव्यराशि एवं वस्त्राभूषणादि भेंट-स्वरूप प्रदान किये थे १०३ | ___इसी प्रकार, एक अन्य वार्ता-प्रसंग से विदित होता है कि "पुण्णासवकहा" नामक एक अपभ्रंश-कृति की परिसमाप्ति पर उसके आश्रयदाता साधारण साहू को जब वीरदास नामक द्वितीय पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, तब बड़ी प्रसन्नता के साथ साधारण साहू ने महाकवि रइधू एवं उनकी कृति "पुण्णासवकहा" को चौहानवंशी नरेश प्रतापरुद्र के राज्यकाल में चन्द्रवाडपट्टन में हाथी की सवारी देकर सम्मानित किया था १०४ | जैन-साहित्य तथा जैन-पाण्डुलिपियों के लेखन में कायस्थ-विद्वानों का योगदान जैन-साहित्य के विकास में जैनेतर विद्वानों का भी कम योगदान नहीं रहा। पाण्डुलिपियों के प्रतिलेखन-कार्य में अनेक कायस्थ विद्वानों के नाम उपलब्ध होते हैं। मध्यकालीन भट्टारकों के वे बड़े विश्वस्त-पात्र थे क्योंकि एक तो उनकी हस्तलिपि सुन्दर होती थी और वे यथानिर्देशानुसार कलात्मक ढंग से एकरूपता के साथ प्रतिलेखन-कार्य किया करते थे। दूसरी ओर प्रतिभा-सम्पन्न रहने के कारण वे काव्य-प्रणयन भी किया करते थे। महाकवि रइधू के गुरु भट्टारक यशःकीर्ति के सान्निध्य में रहकर कार्य करने वाले पं. थलु कायस्थ का नाम विशेष आदर के साथ लिया जाता है। भट्टारक यशःकीर्ति के निर्देशानुसार पं. थलु कायस्थ ने गोपाचल (ग्वालियर) में रहकर अपभ्रंश भाषात्मक सुकुमालचरिउ (पं. विबुध श्रीधर कृत) तथा भविष्यदत्तचरित (संस्कृत) का प्रतिलिपि-कार्य किया था। ___एक दूसरे कायस्थ पं. पद्मनाभ कायस्थ थे, जो संस्कृत के अच्छे कवि थे तथा जिन्होंने ६ सर्गों वाले १४६१ श्लोकों में यशोधरचरित-अपरनाम दयासुन्दर-काव्य की रचना की थी। यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है तथा जैन सिद्धान्त भवन, आरा (बिहार) में उसकी पाण्डुलिपि सुरक्षित है। यह ग्रन्थ भट्टारक गुणकीर्ति के आदेश से तोमरवंशी राजा वीरमदेव के महामन्त्री कुशराज जैन के निमित्त लिखा गया था। १०३. सम्मतगुण. ६/३४ १०४. पुण्णासवकहा (अन्त्य प्रशस्तिः)
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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