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________________ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख ७३ हाथी, घोड़े, ध्वजा, छत्र, चँवर, सुन्दर-सुन्दर रानियाँ, रथ, सेना, सोना, चाँदी, धन-धान्य, भवन, सम्पत्ति, कोष, नगर, ग्राम, बन्धु-बान्धव, सन्तान, पुत्र, भाई आदि सभी मुझे उपलब्ध हैं। सौभाग्य से किसी भी प्रकार की भौतिक-सामग्री की मुझे कमी नहीं, किन्तु इतना सब होने पर भी मुझे एक वस्तु का अभाव सदा खटकता रहता है और वह यह है कि मेरे पास काव्यरूपी एक भी सुन्दर मणि नहीं है। उसके बिना मेरा सारा अतुल वैभव फीका-फीका लगता है। हे काव्यरत्नाकर, आप तो मेरे स्नेही बालमित्र हैं, अतः मैं अपने हृदय की गाँठ खोलकर आपसे सच-सच कहता हूँ, आप कृपाकर मेरे निमित्त एक काव्य-रचना कर मुझे अनुग्रहीत कर दीजिए १०० ।" महाकवि रइधू ने संघवी की प्रार्थना स्वीकार कर सम्मत्तगुणणिहाणकव्व की रचना कर दी। उसकी प्रशस्ति में कवि ने उक्त संघवी द्वारा निर्मापित गोपाचल-दुर्ग की ८० फीट ऊँची आदिनाथ की मूर्ति की चर्चा की है, जिसका प्रतिष्ठा-कार्य स्वयं महाकवि रइधू द्वारा सम्पन्न हुआ था १०१ । ___ हरयाणा के महाकवि बिबुध श्रीधर (१२वीं सदी) जब अपने चंदप्पहचरिउ ०२ (अपभ्रंश-महाकाव्य) की रचनाकर कुछ शिथिलता का अनुभव करने लगे, तब उसे दूर करने के निमित्त वे भ्रमणार्थ दिल्ली आये थे। वहाँ उनकी भेंट विश्व प्रसिद्ध सार्थवाह नट्टल साहू से हुई। नट्टल ने अपने परिचय में कवि को बतलाया कि “मैंने दिल्ली में एक विशाल शिखरबन्द आदिनाथ का मन्दिर बनवाया है और बहुरंगी समारोह में मैने उस पर पंचरंगी झण्डा भी फहराया है। देश-विदेश में मेरी ४६ व्यावसायिक गदियाँ (Agencies for Trade and Commerce) हैं। मेरे पास किसी भी प्रकार की भौतिक सम्पदा की कोई कमी नहीं है। केवल कमी है तो एक ही बात की कि मेरे पास स्वाध्याय करने हेतु कोई सुन्दर ग्रन्थरत्न नहीं है। अतः कृपाकर आप मेरे निमित्त इसी आदिनाथ मन्दिर में बैठकर पासणाहचरिउ की रचना कर दीजिये। कवि ने नट्टल का अनुरोध स्वीकार कर उक्त चरित-काव्य का प्रणयन कर दिया। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, प्रस्तुत पासणाहचरिउ (की पाण्डुलिपि) की यह विशेषता है कि उसकी प्रशस्ति में १२वीं सदी की दिल्ली का आँखों देखा वर्णन किया गया है। उस समय दिल्ली में कुतुबमीनार का निर्माण नहीं हुआ था। किन्तु जब कुतुबुदीन ऐबक का वहाँ राज्य हुआ, तब उसने उस आदिनाथ के मन्दिर तथा उसके प्रांगण के मानस्तम्भ तथा समीपवर्ती अन्य अनेक मन्दिरों तथा कीर्तिस्तम्भ को तोड़-फोड़कर उसी सामग्री से कुतुबमीनार तथा कुतुब्बुल-इस्लाम नाम की एक विस्तृत मस्जिद का निर्माण कराया था। ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्व का यह पासणाहचरिउ अभी तक अप्रकाशित है। १००-१०१. सम्मत्तगुणणिहाणकव्व (अद्यावधि अप्रकाशित) आदि-प्रशस्ति १०२. वर्तमान में अनुपलब्ध
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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