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________________ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख ७५ इनके पूर्व भी कायस्थ-कुलोत्पन्न महाकवि हरिचन्द (८वीं सदी) हुए थे, जिन्होंने तीर्थंकर धर्मनाथ के महनीय व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य की आलंकारिक रचना की थी, जिसे पं.के.बी.पाठक जैसे संस्कृत के अनेक महारथी विद्वानों ने महाकवि कालिदास के महाकाव्यों के समकक्ष घोषित किया था। एक मध्यकालीन पाण्डुलिपि से यह भी जानकारी मिलती है कि जोधपुर (राजस्थान) के खेड़ागढ़ के पास एक जैन मन्दिर के भूमिगृह में जिनभद्रसूरि की एक पाषाणमूर्ति स्थापित है, जिसे उकेशवंशी कायस्थ कुल वाले किसी श्रावक ने वि.सं. १५१८ में बनवाई थी १०५ | व्यक्तियों के नाम रखने की मनोरंजक घटना अपभ्रंश-काव्य प्रशस्तियों में व्यक्तियों के नाम रखने सम्बन्धी कुछ मनोरंजक उदाहरण भी मिलते हैं। "मेहेसरचरिउ" नामक एक (अप्रकाशित) चरितकाव्य के प्रेरक एवं आश्रयदाता साहू णेमदास के परिचय-प्रसंग में कहा गया है कि उसके पुत्र ऋषिराम को उस समय पुत्ररत्न की उपलब्धि हुई थी, जिस समय वह पंचकल्याणक-प्रतिष्ठा के क्रम में जिन-प्रतिमा पर तिलक अर्पित कर रहा था। इसी उपलक्ष्य में उस नवजात शिशु का नाम भी उसने "तिलकू" अथवा "तिलकचन्द्र" रख दिया था १०६ | पाण्डुलिपियों के प्रतिलिपि-कार्य का महत्व १५वीं-१६वीं सदी की पाण्डुलिपियों की प्रशस्तियों को देखकर यह प्रतीत होता है कि समाज के नेताओं एवं कवियों को यह चिन्ता रहा करती थी कि पिछली सदियों में देश-विदेश के ईर्ष्यालुओं के द्वारा जिनवाणी की जो अपूर्व क्षति हुई है, उसे कैसे पूर्ण किया जाए ? यही कारण है कि उस समय के भट्टारकगण स्वयं तो साहित्य-प्रणयन करते ही रहे, लेखकों को आश्रय देकर उन्हें प्रशिक्षित एवं प्रेरित कर उनके द्वारा भी ग्रन्थों का प्रणयन तथा प्रतिलिपि-कार्य कराते रहते थे। उत्तर-भारत में यह परम्परा अनेक स्थानों पर मिलती है। जैसा कि पूर्व में लिखा जा चुका है, महाकवि पुष्पदन्त ने महापुराण की प्रशस्ति में स्पष्ट कहा है कि "भरत एवं नन्न के राजमहल में साहित्यकारों के साथ-साथ प्रतिलिपिकार भी प्रतिलिपियों का लेखन-कार्य करते रहते है १०७ । महाकवि रइधू ने ग्रन्थ-प्रणेता एवं ग्रन्थ के प्रतिलिपिक को समकक्ष स्थान दिया है। उन्होंने अपनी एक कृति में ग्रन्थ-प्रतिलिपि के निमित्त आर्थिक अनुदान देने की प्रवृत्ति को त्याग-धर्म एवं शास्त्रदान के अन्तर्गत माना है १०८ | १०५. भावनगर (गुजरात) के प्राचीन लेख संग्रह प्र.भा. (सन् १८८५) पृ. ७१ १०६. मेहेसरचरिउ (अपभ्रंश-महाकाव्य, अद्यावधि अप्रकाशित) १३/११/१३-१४ १०७. महापुराण - सन्धि २१ की पुष्पिका १०८. "धण्णकुमारचरिउ" (जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर से प्रकाशित) २/७
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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