SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जहा गंगा तावं हरदि जगदि खादि-पगडं, तहा वीरो पावं भवभयकर कम्महणदि। तमापुण्णे पंथे विय भवियजीवाण सरणं, णमामोतं वीरंसहज-करुणा-पुण्ण-हिदयं ॥ अन्वयार्थ-(जहा गंगा तावं हरदि) जैसे गंगा ताप को हरती है [ऐसी] (जगदि खादि पगडं) जगत में ख्याति प्रगट है (तहा) वैसे ही (वीरो पापं भवभयकरं कम्महणदि) वीर भगवान भवभयकारी पाप को नष्ट करते हैं, (पंथे) मुक्ति पथ (तमापुण्णे) अज्ञान रूप अन्धकार से पूर्ण है (विय) फिर भी [जो] (भविय जीवाण सरणं) भव्यजीवों को शरणभूत है (तं) उन (सहज करुणा पुण्ण- हिदयं) सहज करुणा पूर्ण हृदय (वीरं) वीर भगवान को [हम] (णमामो) नमन करते हैं। अर्थ-जैसे लोक में यह प्रसिद्ध है कि गंगा ताप को हरती है, वैसे ही वीर भगवान भयंकर संसार में भ्रमण कराने वाले पापों को नष्ट करते हैं। वर्तमान में मुक्ति का मार्ग अज्ञान रूप अन्धकार से व्याप्त है फिर भी भव्यजीवों के लिये जो शरणभूत हैं उन सहज करुणा से पूर्ण हृदय वीर भगवान को हम नमन करते हैं। अहो! मुद्धा वाणी तव चरिदगीदेण णिउणा, अहो!रुद्धंणाणं मम तव रहस्संण विदितं। अहो! चागो तुम्हंतदवि अतुलो भादि विभवो, णमामोतं वीरंसहज-करुणा-पुण्ण-हिदयं॥4॥ अन्वयार्थ-(अहो! मुद्धा वाणी) अहो! यह मुग्ध वाणी (तव चरिदगीदे ण णिउणा) आपका चरित्र गाने में निपुण नहीं है, (अहो! मम रुद्धं णाणं) अहो! यह मेरा अवरुद्ध ज्ञान (तव रहस्सं ण विदितं) आपका रहस्य नहीं जानता (अहो! चागो तुम्ह) अहो! यह आपका अद्भुत त्याग (तदवि) फिर भी (अतुलो भादि विभवो) अतुल्य वैभव शोभित है [ऐसे] (तं) उन (सहज करुणा पुण्ण- हिदयं) सहज करुणा पूर्ण हृदय (वीरं) वीर भगवान को [हम] (णमामो) नमन करते हैं। अर्थ-हे भगवन्! मेरी यह वाणी आपके गुणों पर मुग्ध जरूर है, पर उनके कहने में निपुण नहीं है, यह ज्ञानावरण कर्म के उदय से अवरुद्ध ज्ञान आपके रहस्य को नहीं जानता है, आपका त्याग अद्भुत है, फिर भी आप अतुल्यगुण रूपी वैभव अथवा समवशरण आदि वैभव से सुशोभित हैं, यह आश्चर्य की बात है, ऐसे आश्चर्यों के निधान सहज करुणा से पूर्णहृदय वीर भगवान को हम नमन करते हैं। ण मे कावि वंछा विविहसुरभोगेसुमहदं, ण वा चित्तं दिण्णं किमवि वसुधावैभव-सुहं। तुवं दिव्वदिदिठसुहद-विमलं केवल-गुणं, णमामोतं वीरं सहज-करुणा-पुण्ण-हिदयं॥5॥ अन्वयार्थ-[हे भगवन् !] (विविह सुरभोगेसु महदं) विशाल विविध स्वर्गीय भोगों में (मे) मेरी (कावि वंछा ण) कोई भी वांछा नहीं है, (ण वा) न ही (किमवि) किसी भी (वसुधा वैभव-सुह) पृथ्वी के वैभव सुख में (चित्तं दिण्णं) मन लगा है मुझे तो केवल (तुवं) आपकी (सुहद विमलं दिव्वदिट्ठि) सुखद निर्मल दिव्यदृष्टि वीर-त्थुदी :: 75
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy