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________________ णिस्संकं च णिरातंकं, णिक्कंखं सिद्धिसाहगं । विस्सधम्मस्स णेदारं, वंदे सम्मदिसायरं ॥96 ॥ अन्वयार्थ - ( णिस्संकं) नि:शंक ( णिरातंकं) निष्कांक्ष (सिद्धिसाहगं) सिद्धिसाधक (विस्स-धम्मस्सणेदार) विश्वधर्म के नेता (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ - निःशंक, निरातंक, निष्कांक्ष, सिद्धिसाधक, विश्वधर्म के नेता श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । णिराकुलं सदासंतं, विस्समंगल - कारिणं । णिस्संगं च णियप्पेक्खिं, वंदे सम्मदिसायरं ॥97 ॥ अन्वयार्थ - (णिराकुलं) निराकुल (सदासंतं) सदाशांत (विस्समंगलकारिणं) विश्वमंगलकारी (णिस्संगं) निःसंग (च) और (णियप्पेक्खिं) निजप्रेक्षी ( सम्मदिसायरं ) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ - निराकुल, सदाशांत, विश्वमंगलकारी, निःसंग और निजप्रेक्षी श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । पंच- महव्वदंजुत्तं, पंचिदियणिरोहगं । पंच-समिदि-संजुत्तं, वंदे सम्मदिसायरं ॥98 ॥ अन्वयार्थ–(पंच महव्वदंजुत्त) पाँच महाव्रतों में युक्त (पंचिदियणि - रोहग ) पंचेन्द्रिय निरोधक (पंचसमिदि - संजुत्तं ) पाँच समिति संयुक्त ( सम्मदिसायरं ) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ - पाँच महाव्रतों में युक्त पंचेन्द्रिय, रोधक, पाँच समिति संयुक्त श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । समदादि - छडावस्सं, जुत्तं सत्तविसेसगं । जिणधम्मस्स दारं वंदे सम्मदिसायरं ॥ 99 ॥ अन्वयार्थ – (समदादि छडावस्सं) समता आदि षडावश्यक ( सत्तविसेसगं) सप्त विशेषगुण (जुत्तं) युक्त (जिणधम्मस्सणेदार) जिनधर्म के नेता ( सम्मदिसायरं ) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ- समता आदि षडावश्यक, सप्त विशेष गुण युक्त जिनधर्म के नेता श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । पंचाचाराण गुत्तीणं, दहधम्म-तवाण य । आधारं व्व गुणि सूरि, वंदे सम्मदिसायरं ॥100 ॥ सम्मदि-सदी :: 377
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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