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________________ अर्थ - समदृष्टि, क्षमादृष्टि, दिव्यदृष्टि, अलौकिक, दूरदृष्टि, महादृष्टिवाले श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । कित्तिजुत्तं धिदीजुत्तं चागजुत्तं तवस्सिणं । सम्मचारित्त - संपुण्णं, वंदे सम्मदिसायरं ॥92 ॥ - अन्वयार्थ – (कित्तिजुत्तं) कीर्तियुक्त (धिदीजुत्तं) धृतियुक्त (चागजुत्तं) त्यागयुक्त (तवस्सिणं) तपस्वी ( सम्मचारित्त संपूण्णं) सम्यक्चारित्र से संपूर्ण (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ - कीर्तियुक्त, धृतियुक्त, त्यागयुक्त, तपस्वी सम्यक्चारित्र से सम्पूर्ण श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । जिणागमे सदारत्तं सदारत्तं सुचिंतणे । विरागभाव-संजुत्तं वंदे सम्मदिसायरं ॥93 ॥ अन्वयार्थ - ( सोम्ममुत्ति) सौम्यमूर्ति (सुसोमप्पं) सुसौम्यात्मा (चरित्तुज्जलधारिणं) उज्ज्वल चारित्र को धारण करने वाले (भव्वजीवाण तादारं) भव्य जीवों के त्राता (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ – सौम्यमूर्ति, सुसौम्यात्मा, उज्वल चारित्र को धारण करनेवाले, भव्य जीवों के त्राता श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । धम्माधारं तवागार, अज्झप्पतंतसाधगं । मग्गप्पहावगं जेट्ठ, वंदे सम्मदिसायरं ॥94 ॥ अन्वयार्थ - ( धम्माधारं तवागारं ) धर्माधार तवागार ( अज्झप्पतंतसाधगं) अध्यात्मतंत्र साधक (मग्गप्पहावगं ) मार्ग प्रभावक (जेट्ठ) ज्येष्ठ ( सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ - धर्माधार, तपागार, अध्यात्म तंत्र साधक, मार्ग प्रभावक ज्येष्ठ श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । विण्णाणि झाणतित्थं च, अप्पतित्थं दयाणिहिं । आयरण- तित्थरूवं च, वंदे सम्मदिसायरं ॥195 ॥ अन्वयार्थ - (विण्णाणि) विज्ञानी (झाणतित्थं ) ध्यानतीर्थ (अप्पतित्थं) आत्मतीर्थ (दयाणिहिं) दयानिधि (आयरण- तित्थरूवं च) और आचरण तीर्थरूप (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ - विज्ञानी ध्यानतीर्थ, आत्मतीर्थ, दयानिधि और आचरण तीर्थरूप श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । 376 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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