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________________ अन्वयार्थ – (पंचाचाराण) पंचाचारों के (गुत्तीणं) गुप्तियों के (दहधम्माणतवाण य) दशधर्मों व तपों के (आधारं व्व) आधार के समान (गुणि सूरिं) गुणवान आचार्य (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ - पंचाचारों, तीन गुप्तियों, दश धर्मों व बारह तपों के आधार स्वरूप गुणवान आचार्य श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । मुणिणाहं जदिसेट्ठ, मुत्तिमग्गस्स साहगं । णाणसुज्जं सुणीलोहं, वंदे सम्मदिसायरं ॥101 ॥ अन्वयार्थ – (मुणिणाहं ) मुनिनाथ (जदिसेट्ठ) यतिश्रेष्ठ (मुत्तिमग्गस्ससाहगं) मुक्तिमार्ग के साधक ( णाणसुज्जं ) ज्ञानसूर्य ( सम्मदिसायरं ) सन्मतिसागर को (अहं) मैं (सुणीलो) सुनीलसागर (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ – मुनिनाथ, यतिश्रेष्ठ, मुक्तिमार्ग के साधक, ज्ञानसूर्य, अत्यन्त शीतल स्वभाव वाले आचार्यश्री सन्मतिसागरजी को मैं आचार्य सुनीलसागर वंदन करता हूँ । अप्पणाणी गुणाकंखी, मोक्खमग्गी सुणीलओ । सम्मदी सम्मदी इच्छु, वंदे सम्मदिसायरं ॥ ॥ समत्ता सम्मदी - सदी ॥ 378 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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