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________________ अन्वयार्थ-(जम्म-जोव्वण-संजोगो) जन्म यौवन संयोग (य) और (सुहाणि) सुख (देहिणं) देह धारियों के (जदि) यदि (णिप्पक्खाणि) निष्पक्ष (तहा) और (णिच्चं) नित्य हों तो (को संसार सुहं चए) संसारसुखों को कौन छोड़े? भावार्थ-जन्म, यौवन, संयोग आदि के सुख यदि देहधारी संसारी जनों के निष्पक्ष (पक्षरहित) हों तो फिर इन सब संसार सुखों को कौन छोड़े? अर्थात कोई नहीं। लेकिन तीर्थंकर जैसे महापुरुषों ने भी संसार सुखों को छोड़ा है इससे सिद्ध होता है कि उपरोक्त सभी सपक्ष ही हैं। सब कुछ परिवर्तन शील है देह-आरुग्ग-ईसत्तं, जोव्वणं सुह- संपदा। गेह-वाहण-बंधू य, इंदचावो व अत्थिरा 143 ॥ अन्वयार्थ-(देह-आरुग्ग-ईसत्तं) शरीर, आरोग्य, ऐश्वर्य (जोव्वणं सुहसंपदा) यौवन, सुख-संपदा (गेह-वाहण-बंधू य) गृह (घर), वाहन तथा बंधुजन आदि सभी (इंदचावो व अस्थिरा) इंद्रधनुष के समान अस्थिर हैं।। भावार्थ-शरीर, आरोग्य, ऐश्वर्य, यौवन, सुखसंपदा, गृह (घर), वाहन तथा बंधुजन आदि सभी इंद्रधनुष के समान अस्थिर (चंचल) हैं। निर्ममत्व ही शरणभूत है सरणं णिम्ममत्तं हि, इंदियरोहणं तदो। तदो चागो तवं झाणं, तेहिं मोक्खो य णिच्चलो।44॥ अन्वयार्थ-(हि) वस्तुतः (णिम्ममत्तं शरणं) निर्ममत्व ही शरणभूत है (तदो) उससे (इंदियरोहणं) इंद्रियरोधन (तवं चागो झाणं) तप, त्याग, ध्यान (च) और (मोक्खो णिच्चलो) निश्चल मोक्ष (हवे) होता है। भावार्थ-इस संसार में वस्तुतः निर्ममत्व ही शरणभूत है, सम्यक् निर्ममता (वीतरागता) से पंचेन्द्रिय रोध, उससे तप, त्याग, ध्यान, और इससे निश्चल मोक्ष प्राप्त होता है। निर्ममत्व मोक्षार्थी के गुण सहावसुचिदा मित्ती, चागो सच्चं अणालसं। सुशीलं सूरदा आदि, णिम्ममत्तेसु होति हि॥45॥ अन्वयार्थ-(सहावसुचिदा) स्वभावशुचिता (मित्ती) मैत्री (चागं सच्चं अणालसं) त्याग, सत्य, अनालस्य (सुसीलं सूरदा आदि) सुशील शूरता आदि (णिम्ममत्तेसु) निर्ममत्वों में (होंति हि) होते ही हैं। णियप्पज्झाण-सारो :: 317
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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