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________________ भावार्थ - दाने (चुग्गा) की आशावश हो जैसे दीन पक्षी जाल में फँस जाते हैं, वैसे ही सुख की आशा से मोही जन विषयरूपी जाल में बँध जाते हैं। वस्तुतः आशा ही दुःखदायी है जीवाणं विंतरी आसा, आसा हि बिसमंजरी । आसा हि जुण्णमइरा, णिरासो परमो सुही ॥39॥ अन्वयार्थ – (जीवाणं विंतरी आसा) जीवों के लिए आशा ही व्यंतरी है (आसा हि बिसमंजरी) आशा ही विषमंजरी है (य) और (आसा हि जुण्णमइरा ) आशा ही पुरानी मदिरा है ( णिरासो परमो सुही) आशा रहित जीव ही परम सुखी है। भावार्थ - वस्तुतः संसारी जीवों के लिए आशा व्यंतरी है, आशा ही विषमंजरी है, आशा ही पुरानी मदिरा है, आशा रहित जीव ही परम सुखी है। आशा तजो, निज को भजो विसएसु जहा चित्तं, जीवाणं सुट्ठ संजुदं । तहा जादे णियप्पम्मि, सिग्धं को णत्थि सिज्झहि ॥40॥ अन्वयार्थ - ( जहा ) जैसे (जीवाणं) जीवों का ( चित्तं) चित्त (विसएसु) विषयों में (सुट्ठ संजुदं) अच्छी तरह लगा है ( तहा) वैसे ही यदि (णियप्पम्मि) निजात्मा में (जादे) हो जाए तो (सिग्घं को णत्थि सिज्झहि) शीघ्र ही कौन सिद्ध नहीं हो जायेगा । भावार्थ- जैसे संसारी जीवों का चित्त विषयों में अच्छी तर लग जाता है, वैसे ही यदि निजात्मा में लग जाए तो कौन-सा जीव शीघ्र सिद्ध नहीं हो जायेगा ? मूढजन ही विषयासक्त होते हैं दुक्खमूलं च विच्छिण्णं, अण्णावेक्खं भयप्पदं । अणिच्चं इंदिय-गेज्झं, विसयं सेवदे जणो ॥41 ॥ अन्वयार्थ - ( जणो) मनुष्य (दुक्खमूलं) दुःख के मूल (विच्छिण्णं) विच्छिन्न होने वाले (अण्णावेक्खं) अन्य की अपेक्षायुक्त ( भयप्पदं) भयप्रद (अणिच्चं) अनित्य (च) और (इंदिएगेज्झं ) इंद्रियग्राह्य ( विसयं सेवदे) विषयों का सेवन करते हैं। भावार्थ - दुःख के मूल कारण, विच्छिन्न होने वाले, अन्य की अपेक्षा रखनेवाले, भयप्रद, अनित्य और इंद्रियग्राह्य विषयों को मूढ़ मनुष्य सेवन करते हैं । संसारसुख निष्पक्ष नहीं है जम्म- जोव्वण- संजोगो, सुहाणि जदि देहिणं । णिप्पक्खाणि तहा णिच्छं, को संसार सुहं चए ॥42 ॥ 316 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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