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________________ ण जाणदि) आत्मस्वरूप को नहीं जानता है [वह] (णिम्मलं मोक्खं) निर्मल मोक्ष को (किह) कैसे (पावहि) पाएगा? . अर्थ-जो साधु ख्याति-लाभ की चाहना रखता है, सर्वथा शुभकर्म को उपादेय मानता है तथा निजात्मस्वरूप को नहीं जानता है, वह मोक्ष कैसे पावेगा? व्याख्या-उपाधियों के रहते हुए भी कोई महानुभव निरुपाधि हो सकते हैं, तथा कोई अल्पज्ञ उपाधियों के अयोग्य होने पर भी विकल्पों में रचे रह सकते हैं। प्रस्तुत गाथा में यह कहा जा रहा है कि जिसको पूजा-प्रतिष्ठा की चाहना रूप विकल्प है, पुण्यकर्म ही श्रेष्ठ है ऐसी आत्मानुभव के अभाव में नित्य धारणा है तथा जिसने शुभाशुभ कर्मोपाधि से रहित निजस्वरूप को नहीं जाना है, बताओ उसे निर्मल आत्मोपलब्धि रूप मोक्ष कैसे मिलेगा? अर्थात् कैसे भी नहीं। ख्यातिलाभेच्छारहितोऽहम्।' कषाय के बिना बंध नहीं होता जत्थ ण अस्थि कसाया, तत्थ मणे किह हवेज कालुस्सं। बंधेज केण कम्मं, के ण दु जीवो भवे भमिहिदि ॥18॥ अन्वयार्थ-(जत्थ) जहाँ (कसाया) कषाएं (ण अत्थि) नहीं हैं (तत्थ मणे किह हवेज कालुस्सं) वहाँ मन में कालुष्य कैसे होगा [तब] (कम्म) कर्म (केण) किससे (बंधेज) बंधेगा (केण दु जीवों भवे भमिहिदि) तथा किससे जीव संसार में भ्रमेगा? अर्थ-जहाँ कषायभाव नहीं है, वहाँ मन में कलुषता कैसे होगी? तब कर्म किससे बंधेगा और किससे जीव संसार में भ्रमण करेगा? व्याख्या-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग व प्रदेशबंध के भेद से बंध चार प्रकार का है। योग से प्रकृति व प्रदेश तथा कषाय से स्थिति व अनुभाग बंध होता है। जैसा कि द्रव्यसंग्रह में कहा है पयडिट ठिदि-अणुभागपदेसभेदादु चदुविधो बंधो। जोगा पयडि पदेसा, ठिदी अणुभागा कसायदो होति॥ मन-वच-काय रूप योगों से प्रकृति व प्रदेश बंध होता है, जबकि कषायों से स्थिति (मर्यादा) व अनुभाग (फल) बंध होता है। जैसे तीव्र-मंद कषायभाव होगें स्थिति व अनुभाग बंध उसी तीव्रता से बंधेगे। कषायों के बिना प्रकृति और प्रदेश बंध कुछ काम नहीं कर पाते हैं। अतः बंध का मूलकारण कषाय है। ___ जहाँ कषाय न हो, वहाँ उपयोग (मन) में कलुषता (मैलापन) क्यों होगी और जहाँ उपयोग में कलुषता नहीं होगी, वहाँ कर्मबंध कैसे होगा? तब कर्मबंध के अभाव में यह जीवात्मा संसार में किस कारण से भटकेगा? अर्थात् नहीं भटकेगा; 258 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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