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________________ सकते हैं?' ख्याति-लाभ या पूजा-प्रतिष्ठा के लिए व्रत धारण करना, भूसे के लिए धान्य बोने के समान है। आचार्य कुन्दकुन्द भावपाहुड में कहते हैं - भंजसु इंदियसेणं, भंजसु मणोमक्कडं पयत्तेण । मा जणरंजण- करणं, बाहिर-वय-वेस तं कुणसु ॥90 ॥ अर्थात् इन्द्रियसेना को भग्न करो, मन-मर्कट को प्रयत्नपूर्वक भग्न करो तथा लोगो के मनोरंजन के लिए व्रत - संयम को धारण मत करो। आत्मस्वरूप में तल्लीनता बढ़ना ही वस्तुतः अच्छी तरह से मोक्षमार्ग में बढ़ना कहलाता है । 'आत्मस्वरूप - स्थिरोऽहम् । ' 4 उपाधियाँ आत्म-स्थिरता में बाधक जदि अत्थि णिरुवाही, उवाहीभावेण किंच मा रज्ज । सरीर-विहवोवाहिं, अथिरत्तस्स कारणं मुंच ॥16 ॥ अन्वयार्थ - (जदि) यदि [तुम] ( णिरुवाही अत्थि) निरुपाधि हो [तो] (उवाही भावेण ) उपाधि भाव से (किंच) किंचित भी (मा रज्ज) रंजित मत होओ [ अपितु ] ( सरीर-विहवोवाहिं ) शरीर व वैभवोपाधि रूप ( अथिरत्तस्स कारणं) अस्थिरता के कारण को (मुंच) छोड़ो। अर्थ - हे जीव ! यदि तुम निरुपाधि हो तो उपाधियों के भावों से किंचित भी रंजित मत होओ, देह व वैभव की उपाधि अस्थिरता के कारण है, इन्हें छोड़ो । व्याख्या — हे चैतन्य आत्मन् ! यदि तुम देह, गृह, समाज, राष्ट्र अथवा धर्मसंघ आदि की उपाधि (पद) से रहित हो तो उपाधियों के अर्थ रंजित मत होओ। उपाधियों को प्राप्त करने का भाव ( पुरुषार्थ ) तथा तत्संबधी अहंकार मत करो । अस्थिरता के कारण भूत देह में ममत्व अथवा सुंदर बनाए रखने रूप उपाधि तथा वैभव प्रदर्शित करने वाली पद-प्रतिष्ठा या धन आदि की उपाधि का त्याग करो । आत्मस्वरूप को समझ कर सामाजिक, राजनैतिक अथवा धर्मसंघ से सम्बंधित उपाधियाँ ग्रहण करने से बचो, क्योंकि इनसे संकल्प - विकल्पों की वृद्धि होती है । कदाचित उपाधियाँ प्राप्त हैं, तो उनमें अहंकार/ममकार मत करो । 'उपाधिवर्जितोऽहम्'। ख्याति लाभ की चाह से मोक्ष नहीं इच्छदि खादिं लाहं, सुहकम्मं जो हि मण्णदे सेट्ठ । णय जाणदि णिरूवं, पावहि किह णिम्मलं मोक्खं ॥17॥ अन्वयार्थ - ( जो ) जो (खादिं लाहं ) ख्याति - लाभ चाहता है, (हि) सर्वथा (सुहकम्मं ) शुभकर्म को (सेट्ठ) श्रेष्ठ (मण्णदे) मानता है (य) और (णियरूवं अज्झप्पसारो :: 257
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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