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________________ बनी रहती है, इस आकुलता में कभी जीव सुखानुभव भी करता है, किन्तु यह दुःख ही है। ये विभाव ही आत्मा को अस्थिर करते हैं। यदि ये नष्ट हो जावें तो फिर दुःख का क्या कारण शेष रहता है? कुछ भी नहीं। 'संकल्प-विकल्पशून्योऽहम्।' रागादि विकल्पों से जीव बंधता है रागादिवियप्पेहि, जीवो बज्झदि बहुविह-कम्माइं। रागादिणिरोहेण, सुक्खं वेदेदि अप्पभवं ॥14॥ अन्वयार्थ-(रागादिवियप्पेहिं) रागादि विकल्पों से (जीवो) जीव (बहुविहं कम्माई बज्झदि) बहुविध कर्म बांधता है [जबकि] (रागादिणिरोहेण) रागादि के निरोध से (अप्पभवं सुक्खं वेदेदि) आत्मा से उत्पन्न सुख भोगता है। अर्थ-यह जीव रागादि विकल्पों से बहुविध कर्मबंध करता है, जबकि रागादि के निरोध से आत्मोत्पन्न सुख का वेदन करता है। व्याख्या-यह संसारी चैतन्य आत्मा अज्ञानदशा में राग, द्वेष, क्रोधादि, कषाय, हास्यादि नौकषाय तथा असंख्यात लोक प्रमाण रागादि भावों से ज्ञानावरणादि बहुत प्रकार के भवभ्रमणकारी दुःखदायक कर्मों का आस्रव-बंध करता है; किन्तु जब इसे आत्मस्वभाव तथा परभावों का स्वरूप प्रतिभासित होता है, तब आत्मस्वरुप के आलम्बन से रागादि विकल्पों का निरोध कर आत्मा से उत्पन्न अनाकुलतारूप आनंद का वेदन करता है। यह आत्मानुभव की स्थिति ही शुद्धोपयोग कहलाती है। यह ही आत्मस्थिरता और संवरदशा है। 'रागादिविकार रहितोऽहम्।' आत्मस्थिरता ही मोक्षपथ पर बढ़ना है जह जह वड्ढदि थिरदा, वियप्प-रहिदं अणाकुलत्तं वा। तह तह वड्ढदि अप्या, मोक्खपहे णिम्मले सम्मं ॥15॥ अन्वयार्थ-(जह जह) जैसे-जैसे (थिरदा) स्थिरता (वा) अथवा (वियप्परहिदं अणाकुलत्तं) विकल्प रहित अनाकुलता (वड्ढदि) बढ़ती है (तह तह) वैसेवैसे (अप्पा) आत्मा (णिम्मले मोक्खपहे) निर्मल मोक्षमार्ग में (सम्म) अच्छी तरह (वड्ढदि) बढ़ता है। अर्थ-आत्मस्वरूप में जैसे-जैसे स्थिरता अथवा विकल्प रहित अनाकुलता बढ़ती है, वैसे-वैसे आत्मा निर्मल मोक्षमार्ग में अच्छी तरह बढ़ता है। . व्याख्या-तेरह प्रकार का चारित्र अथवा अट्ठाईस मूलगुण आदि ज्ञानध्यान के साधन हैं। ज्ञान-ध्यान आत्मस्थिरता के साधन हैं। आचार्य श्री आदिसागर जी (अंकलीकर) कहते हैं कि 'व्रत-संयम परिणामों की विशुद्धि के साधन हैं; जिन व्रतों के पालन में परिणाम संक्लेशित होते हों, वे कर्म-निर्जरा के साधन कैसे हो 256 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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