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________________ विमंचदे) विराग से छूटता है (तम्हा) इसलिए (रागं च मोहं च) राग-द्वेष व मोहक्षोभ [इन] (बंधकारणं) बंधकारणों को (मुंचसु) छोड़ो। अर्थ-राग से कर्म बंधता है, विराग से छूटता है, इसलिए बंध के कारणभूत राग-द्वेष व मोह-क्षोभ को छोड़ो। व्याख्या-आस्रव व बंध संसार परिभ्रमण के आधार हैं। आस्रव के बिना बंध नहीं होता। बंध के निरोध के लिए आस्रव को जानना परम आवश्यक है। आस्रव की समझ होने पर बंध की भी समझ होगी। आस्रव का निरोध होगा तो बंध का भी निरोध होगा। आस्रव द्वार है तो बंध भीतरी भाग; द्वार बंद हो जाने पर भीतरी भाग स्वतः ही सुरक्षित हो जाता है। इसलिए अलग से बंध भावना नहीं कही गयी है। मूलतः स्निग्धरूप रागभावों से युक्त जो आस्रव है, उससे ही बंध होता है। वीतराग भावों से बंध नहीं होता। इसलिए राग-द्वेष व मोह-क्षोभ का त्याग करों। राग और मोह तथा द्वेष और क्षोभ एकार्थवाची दिखते जरूर हैं, पर इनमें महान अंतर है। राग तो दसवें गुणस्थान तक संभव है, किन्तु मोह (मिथ्यात्व) प्रथम गुणस्थान से आगे नहीं होता। पदार्थों में शत्रुता का भाव द्वेष है, जबकि परिणामों की अस्थिरता को क्षोभ कहते हैं। ये सभी वैभाविक भाव हैं, अत: त्याज्य हैं। आत्मस्थिरतारूप वीतराग भाव ही जीव के लिए उपादेयभूत है। 'राग-द्वेषादिविभावशून्योऽहम्' ॥24॥ संवर भावना संवरो आसव-रोहो, गुत्ती समिदि-धम्मो य। भावणा य परिसहो, चारित्तेण भवंति हि ॥25॥ अन्वयार्थ-(आसव-रोहो) आस्रव-रोध (संवरो) संवर है [वह] (गुत्ती समिदि-धम्मो य) गुप्ति, समिति व धर्म (भावणा) भावना (परिसहो) परिषहजय (य) तथा (चारित्तेण भवंति हि) चारित्र से होता है। अर्थ-आस्रव का निरोध संवर है, वह गुप्ति, समिति, धर्म, भावना, परिषहजय तथा चारित्र से होता है। व्याख्या-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग आदि जिन-जिन कारणों से आस्रव (बंध) होता हैं, उनका निरोध कर देने से अथवा उनके रुक जाने से संवर होता है। कर्मास्रव को रोकने में समर्थ जो शुद्धात्मा की निर्मल भावना है, उसके बल से भोगाकांक्षा रूप निदान बंध आदि विभाव भावों से रहित, जो आत्मानुभूति है, उसे भावसंवर कहते हैं। तथा कर्मों का आगमन रुक जाना द्रव्यसंवर कहलाता है। वह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय तथा चारित्र से होता है। इनमें जो प्रवृत्ति है, वह अशुभकर्मों का संवर तथा शुभ कर्मों का आस्रव कराती है, 206 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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