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________________ अन्वयार्थ-(तिजोगेहिं) तीन योगों के द्वारा (जीवस्स) जीव के (पदेसम्मि) प्रदेशों में (जं) जो (फंदणं) स्पंदन (मोहोदएण जुत्तस्स) मोह के उदय से युक्त के (हवे) होता है (तेण) उससे (कम्मास्सवो) कर्मास्रव होता है। अर्थ-तीनों योगों के द्वारा मोहोदय से युक्त जीव के प्रदेशों में जो स्पंदन होता है, उससे कर्मास्रव होता है। व्याख्या-मन, वचन, कायरूप तीन योगों के माध्यम से आत्मप्रदेशों में परिस्पंदन होने का नाम योग है। अथवा परिस्पंदन में सहायक जीव का उपयोग भी योग है। तीनों योगों की चंचलता से आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन होने से कर्मास्रव होता है। योगों से प्रकृति और प्रदेश बंध ही होता है, किन्तु मोहोदय की युक्तता से अर्थात् कषायों से स्थिति व अनुभाग बंध होता है। ____ यह आस्रव अत्यन्त दुःखदायी है। आस्रव भी जीव के निजी भावों पर ही निर्भर है, इसलिए जीव ही इसका जिम्मेदार है। जीव यदि शुभयोगरूप प्रवृत्ति करता है, तो शुभफलदायक पुण्यास्रव करता है और यदि अशुभयोगरूप प्रवृत्ति करता है, तो अशुभफलदायक पापबंध करता है। शुभाशुभ से रहित जब निजात्मा का अवलंबन करता है, तब आस्रव का निरोध करता है। अशुभास्रव संसार का कारण है, शुभास्रव कथंचित परंपरा से मोक्ष का कारण है, जबकि शुद्धभावों से मोक्ष की प्राप्ति होती है। आस्रव के दूसरे दो भेद-1. भावास्रव, 2. द्रव्यास्रव। जिन मिथ्यादर्शनादि भावों से सूक्ष्मपुद्गल स्कंध कर्मरूप होकर आते हैं, उसे भावास्रव तथा जो पुद्गल कर्म आते हैं उसे द्रव्यास्रव कहते हैं। इनके अलावा जो कषाय सहित आस्रव है, उसे सांपरायिक तथा कषायरहित आस्रव को ईर्यापथ आस्रव कहते हैं। आस्रव के 4,5,32,57 तथा 108 भेद भी होते हैं। नाना जीवों की अपेक्षा आस्रव के असंख्यात भेद हैं। जैसे अनेक रत्नों से भरा हुआ जहाज सछिद्र होने से किनारे के नगर तक नहीं पहुँचकर समुद्र में ही डूब जाता है; वैसे ही यह जीव रूपी जहाज जो कि सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्रादि रत्नों से भरा हुआ है, इसमें जब इन्द्रिय, कषाय, असंयम तथा प्रमाद आदि छिद्रों से कर्मरूपी जल भरने लगता है तब यह भी संसार समुद्र के किनारे वाले मोक्षनगर को प्राप्त नहीं करता हुआ डूब जाता है। ___आस्रव अशुचि, अशरण व दु:खदायक हैं, ऐसा विचारकर आत्म-स्थिरता के बल से उसका निरोध करना चाहिए। 'मनवचनकायरूप-योगत्रय-रहितोऽहम् ' ॥23॥ आस्रव पूर्वक बंध होता है राएण बज्झदे कम्मं, विराएण विमुंचदे। तम्हा रागं च मोहं च, मुंचसु बंधकारणं ॥24॥ अन्वयार्थ-(राएण) रागसे (कम्म) कर्म (वज्झदे) बंधता है (विराएण भावणासारो :: 205
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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