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________________ आत्मा [तथा] (बंधू-संकिण्णमालयं) बन्धुओं से संकीर्ण घर होना वैभव की निशानी हैं। भावार्थ-भोजन पुत्रों के साथ बैठकर करना चाहिए, अच्छे मित्र इतने होने चाहिए कि जिससे आसन कम पड़ जाएँ, शास्त्राभ्यास इतना होना चाहिए कि रागद्वेष आदि विकारों के लिए आत्मा में जगह कम पड़ जाए और बन्धु अर्थात् कुटुम्बीजनों से घर भरा रहना चाहिए। यह वैभव-सम्पन्नता के चिह्न हैं। इन्हें नाराज मत करो भोजगाराण वेज्जाणं, सेवग-सत्थपाणीणं। सामिधणिग-मूढाणं, णाणीणं णेव कुप्पदु ॥111॥ अन्वयार्थ-(भोजगाराण वेज्जणं, सेवग-सत्थपाणीणं सामिधणिग-मूढाणं, णाणीणं णेव कुप्पदु) भोजकार, वैद्य, सेवक, शस्त्रयुक्त, स्वामी, धनिक, मूर्ख [तथा] ज्ञान-सम्पन्न को कुपित नहीं करना चाहिए। भावार्थ-भोजन बनाने वाले रसोइया, वैद्य-डॉक्टर, सेवक-नौकर, हाथ में शस्त्र लिए हुए व्यक्ति, मालिक (गुरु), धनवान, मूर्ख और ज्ञान सम्पन्न व्यक्ति को किन्ही कारणों से कभी-भी कुपित नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये क्रोधित होने पर महाअनर्थ कर सकते हैं। ये अति दुर्लभ हैं सुवक्केण जुदं दाणं, सूरत्तं खम-संजुदं। अगव्व-संजुदं णाणं, लोगम्हि अइदुल्लहं॥112॥ अन्वयार्थ-(सुवक्केण जुदं दाणं) सुवाक्यों से युक्त दान (सूरत्तं खमसंजुदं) क्षमा युक्त शूरता (अगव्व-संजुदं णाणं) अगर्व युक्त ज्ञान (लोगम्हि अइदुल्लहं) लोक में अति-दुर्लभ है। भावार्थ-अच्छे वचन बोलते हुए दान का देना, क्षमाभाव युक्त शूर-वीरता और अभिमान रहित ज्ञान संसार में अत्यन्त दुर्लभ हैं। दानवीरता, शूरवीरता और ज्ञानयुक्तता ये ऐसे गुण है, जिनके आने पर मनुष्य के अभिमान आदि दोष बढ़ जाते हैं; इसलिए इनकी निर्दोष प्राप्ति तीन लोक में भी दुर्लभ कही है। किसको कैसे जीतें लुद्धमत्थेण गेण्हेज्ज, माणिं अंजलिकम्मुणा। मुक्खं छन्दाणुवत्तीए, जहट्ठत्तेण पंडिदं 113॥ अन्वयार्थ-(लुद्धमत्थेण) लोभी को धन से (माणिं अंजलिकम्मुणा) मानी लोग-णीदी :: 167
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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