SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को हाथ जोड़कर ( मुक्खं छन्दाणुवत्तीए) मूर्ख को छन्दानुवृत्ति से [ तथा ] (पंडिदं) - पण्डित को (जहट्ठत्तेण ) यथार्थता से (गेहेज्ज) ग्रहण करना चाहिए । भावार्थ - लोभी मनुष्य को धन देकर, परोपकारी, गुरु, मालिक, हठी आदि अभिमानी मनुष्य को हाथ जोड़कर अर्थात् विनय से, मूर्ख - मन्दबुद्धि मनुष्यं को उसके अनुसार प्रवृत्ति कर तथा बुद्धिमान व्यक्ति को यथार्थ का परिचय कराकर अर्थात् सत्य व्यवहार करके ग्रहण अर्थात् अपने वश में करना चाहिए। अनभ्यासे विषं विद्या अभासे विसं विज्जा, अजिण्णे भोयणं विसं । विसं गोट्ठी दलिद्दस्स, वुड्ढस्स तरुणी विसं ॥114 ॥ - अन्वयार्थ – (अणब्भासे विसं विज्जा) अभ्यास नहीं करने पर शास्त्र विष है (अजिण्णे भोयणं विसं) अजीर्ण होने पर भोजन विष है ( दलिद्दस्स गोट्ठी विसं) दरिद्र के लिए गोष्ठी विष है ( बुड्ढस्स तरुणी विसं) वृद्ध के लिए तरुणी विष है। भावार्थ – बार-बार अभ्यास नहीं करने पर शास्त्रज्ञान विष जैसा हो जाता है अर्थात् कुछ का कुछ प्रतिपादन होने लगता है। अजीर्ण होने पर भोजन जहर हो जाता है। सामाजिक-धार्मिक सभा दरिद्र के लिए जहर है, क्योंकि एक तो उसकी आजीविका कमाने का समय नष्ट होगा, दूसरा उसे अपमान भी सहन करना पड़ सकता है तथा बूढ़े मनुष्य के लिए तरुणी - स्त्री जहर के समान शीघ्र मारने वाली होती है। किसका रस क्या है पाणी हि रसो सीदो, भोयणस्सादरो रसो । अणुकूलो रसो बंधू, मित्तस्सावंचणं रसो ॥115 ॥ अन्वयार्थ - (हि) वस्तुतः (पाणीए रसो सीदो) पानी का रस शीत है (भोयणस्सादरो रसो) भोजन का रस आदर है (अणुकूलो रसो बंधू) बन्धुओं का रस अनुकूलता है [ और ] ( मित्तस्सावंचणं रसो) मित्र का अवंचना रस है। भावार्थ- वास्तविक बात यह है कि पानी शक्कर से नहीं अपितु अपनी शीतलता से ही मीठा लगता है, भोजन पकवानों से नहीं आदर पूर्वक कराए जाने पर अच्छा लगता है, बंधुजन बहुत होने से नहीं अपितु अनुकूल होने पर अच्छे लगते हैं तथा मित्र धनवान होने पर नहीं अपितु निष्कपट व्यवहार करने से अच्छा लगता है, शोभित होता है। किसके बिना क्या नष्ट होता है मेहहीणो हदो देसो, पुत्तहीणं हृदं धणं । विज्जाहीणं हदं रूवं, हदो देहो अचारिदो ॥116 ॥ 168 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy