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________________ अज्जिग्गा विजया मदीए पेरणा 61 आरा-पुरी सरवदी वदि बंहचारी सारस्सदीइ विजयामदि-अज्जिगाउ। भागिण्ण-तुल्ल-अदिविण्ण-सुसाहिगाउ मे तुम्ह सीसउ गुरुत्तु कदा भविस्से॥61॥ आरा नगरी की शरवती व्रती, ब्रह्मचारिणी सरस्वती के पश्चात् विजयामति आर्यिका बनी थीं। वे भगिनी तुल्य थीं, अति विज्ञ एवं सुसाधिका भी थीं। वे कहती तुम गुरु और मैं शिष्या कब बनूंगी? 62 वंदामि सम्म कुणमाण-इमो वि णेमी णेमी दिढी वि णियमे वि मणी वि होस्से। साहू समागम-मणोहर-वित्ति-एसो मुस्सेदि दूर-दुरितादु पपुस्स-मोक्खं ॥62॥ वे क्षुल्लक नेमिसागर सम्यक् वंदना पूर्वक कहते-यह नेमि हठी है, नियम में भी। मुनि बनूंगा। क्योंकि साधुओं का समागम एवं मनोहर वृत्ति (आचार-विचार आदि की प्रवृत्ति) पापों से दूर करती और मोक्ष को पुष्ट करती हैं। 63 मुत्तिं च मग्ग-परमं अणुसंधए हु लोयाणुवित्ति-अणुसंस-कदा सुमग्गो। णो पोक्खरो मलमले परिपुण्ण-सोहे राजीव-राज-पउमेहि सुपुप्फएहिं॥3॥ वास्तव में मुक्ति के परम मार्ग की ओर लगना ठीक है। सांसारिक विचार वालों की अनुशंसा कब सुमार्ग युक्त हो सकती है? पोखर जब तक मल युक्त होते हैं तब तक वे शोभित नहीं होते, अपितु वे राजीव पद्म पुष्पों से सुशोभित होते हैं। 64 कप्पडुमा हु फल-दाण-सदा हवेज्जा दुद्धादि-रिद्धि-रस-दत्त-सुइट्ठ-लाह। . सीदुण्ह-आदि परिसग्ग-दुहादि-बाहिं साहेज्ज सम्म-रदणत्तय-सेज्ज-चिट्ठ॥64॥ सम्मदि सम्भवो :: 81
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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