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________________ दुग्ध आदि रस ऋद्धि देने वाली ऋद्धियाँ इष्टलाभ देती हैं। कल्पद्रुम तो सदैव फलदान में तत्पर रहते हैं। इस जगत में सम्यक् रत्नत्रय की शय्या पर स्थित शीतउष्ण आदि परीषह के दुःख एवं व्याधियों को साधु सहते हैं। मुणिभावो 65 सेणीयवड्वण गुणट्ठ-विसुद्ध-भावं सो उत्तरोत्तर-तवं बल-रिद्धि-दाणं। अप्पस्सहा हु विददो अणुबद्ध साहू सो खुल्लगो मुणिमणे महदिं च चागं165॥ श्रेणी प्रवर्धन के गुणस्थान में विशुद्ध भाव तप, बल, ऋद्धि एवं उत्तरोत्तर वृद्धि दान को महत्व दिया जाता है। आत्मा के स्वाभाविक स्थान में स्थित तो साधु होते हैं। यही नेमिसागर क्षुल्लक के मन में महत् त्याग रूप मुनि भाव जागृत हुआ॥ 66 खंतिं च मद्दवसु अज्जव-सच्च-सोचं सम्मं च संजम-तवं परिचाग-मग्गं आकिंचिअण्ण-महबंहचरिज्ज धम्म इट्ठा हु इट्ट दस धम्म-मुणीस-काले॥66॥ क्षान्ति, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग मार्ग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्यधर्म को मुनीश काल में अतिइष्ट रूप धर्म माना है। 67 पत्तेग काल समए अणुपेह पेहं जो पेक्खदे मुणिवरो वि अणिच्च आदि। संसार देह अणुराग ममत्त मोहा खिण्णो गदो परम णिम्मल-झाण मूले॥67॥ इस मुनिवर अवस्था में जो मुनिवर अनित्यादि अनुप्रेक्षाओं का प्रतिकाल, प्रतिक्षण प्रेक्षण करते हैं, वे संसार, शरीर, अनुराग, ममत्व एवं मोह से रहित परम निर्मल ध्यान के मूल में प्रविष्ठ होते हैं। 68 आउंबलं च सुह-संपदणिच्च-लोए जम्मं जरं असरणं मरणं भयं च। 82 :: सम्मदि सम्भवो
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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