SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 48 माणो त्थि एग-दिवसे-हु सुरिंदकित्ती आहार-गिण्ह विणु संघ हिडोरियाए। दंसेज्ज-सावग-जणा विणिवेदएज्जा सेले इमे हु पडिमा अदिरम्म-अत्थि॥48॥ किंवदंती है कि एक दिन आचार्य सुरेन्द्रकीर्ति एवं उनका संघ आहार ग्रहण किए बिना हिंडोरिया आ गया। वहाँ श्रावक जन निवेदन करते कि इस पर्वत पर अतिरम्य प्रतिमा है। 49 दंसेज्जणत्थ मुणिराय-गदो हु तत्थ आवारणेज्ज पहुदंसण-मोद-जुत्तो। सिस्सो सुचंद-वदि-णेमि-पुणो-पइटुं राजा वि छत्त-सहभागिय-पण्ण-रूढे॥49॥ मुनिराज दर्शनार्थ गये, उन्होंने आवरण हटवाया तो प्रभु दर्शन हुए वे आनंदित हुए। उनके शिष्य सुचन्द्रकीर्ति और ब्रह्मचारी नेमि राजा छत्रसाल की सहभागिता से इसे पुनः प्रतिष्ठित करबाते और राजा पन्ना में आरुढ़ होते हैं। 50 लेहो त्थि संवदय-सत्तवणं सणं च सत्तार-सद्द-पुण-ठाविण-सक्किदम्हि। एगो जणो वि सुमिणे परिदंसदे सो तित्थं खणेज्ज गिरि-कुंड-पइट्ठएज्जा॥50॥ सं. 1757 सन् 1700 का लेख है। इसे पुनः प्रतिष्ठित करायी गयी। एक व्यक्ति के स्वप्न में आने पर कुंडलपुर में इसे स्थापित किया गया। 51 अंतिल्ल-केवलि-सिरीधर-पाद-चिंह हुँडावसप्पिणिय-काल-इधे हु सिद्ध। पत्तेज्ज एस अहिलेह-तिलोय-गंथं जाएज्ज णो हु अणुबद्ध इमो वि वाणी ॥1॥ केवल ज्ञानियों में अंतिम केवली श्रीधर कुंडलगिरि से सिद्ध हुए। ये अनुबद्ध केवली नहीं थे, केवली थे। ऐसी गाथा तिलोयपण्णति (अ. 4) में हैं। ये हुँडा वर्सिपणी काल के अंतिम केवली श्रीधर कुंडलपुर में निर्वाण को प्राप्त हुए थे। सम्मदि सम्भवो :: 209'
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy