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________________ ---- नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ६५४ करड़ी, चभती बात सन नी आवे जट रोष। तो जानो वी मनख में, मनख पणारी बोध।। (३) आचार्य श्री की देन से मैंने यतना को समझा, जैसा कि भगवान महावीर स्वामी ने गौतम गणधर के पूछने पर कहा - जयं चरे. जयं चिद्र, जयमासे, जयं पर। जयं भुजंना, भासना, पावकम्मं न बंई।। अर्थात् यतनापूर्वक चले, यतनापूर्वक खड़ा रहे यतनापूर्वक बैठे तथा यतनापूर्वक ही सोए। यतना पूर्वक खाता हुआ और बोलता हुआ व्यक्ति पाप कर्म का बंध नहीं करता है। (४) आचार्य श्री की देन से मैंने निम्नङ्कित सूत्र समझा - जं इणि अप्पणना. ज च का इरिस आधणना। इस परप्स ति, एनिअं जिणमायण ।। अर्थात जो अपने लिए चाहते हो, वह दूसरों के लिए भी चाहना चाहिए और जो अपने लिए नहीं चाहते हो वह दूसरों के लिए भी नहीं चाहना चाहिए। बस इतना मात्र जिनशासन है। (५) अपने पराये को जाना, जैसा कि कहा भी है - जानन में नित जिग्र तप सा न सपना होय ! तो प्रत्यक्षा पर द्रा कंप अपना होय।। और भी कहा है : जो जाव वह मेरा नहीं जो नहीं जाय वह मंग है। आत्मा के अतिरिक्त सब जाने वाले हैं इसलिए आत्मा ही मेरा है। उपर्युक्त निवेदन करने का मेरा तात्पर्य यह है कि मुझसे गलतियाँ तो होती रहती हैं, परन्तु या तो मैं उसी वक्त संभल जाता हूँ और कभी उस वक्त नहीं संभल पाता तो स्वाध्याय एक ऐसा माध्यम है कि जब स्वाध्याय करने बैठता हूँ तब गलती का अहसास होता है और अपने प्रति ग्लानि होती है। गलतियों का चिन्तन चलते-फिरते उठते-बैठते भी हो जाया करता है। -सेवा निवृत्त तहसीलदार, गंगापुर सिटी (राज.) -dan-TA-'--...---... AATHARMA.VAN A Kinemamara
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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