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________________ मेरे जीवन के कलाकार . श्री रामदयाल जैन दरअसल आचार्य श्री के बारे में लिखने में मैं समर्थ नहीं। न मेरे में बुद्धि ही है। आचार्य श्री की बहुत बड़ी देन है। यदि उन्हें मेरे जीवन के कलाकार भी कहूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आचार्य श्री का जो उपकार है, उसे शब्दों में अंकित नहीं किया जा सकता। वह मात्र अनुभव का विषय है। | जिस प्रकार गूंगा गुड़ के स्वाद का अनुभव ही कर सकता है, कहने में समर्थ नहीं होता, वही स्थिति मेरी भी है। सन् १९७३ की बात है कि आचार्य श्री गंगापुर सिटी की नसियां कालोनी में पधारे। मैंने आचार्य श्री के प्रथम दर्शन यहाँ ही किये। आचार्य श्री ने सेठ ऋद्धिचन्द जी व उनके सुपुत्र गुलाबचन्द जी को बारह व्रत अंगीकार करने की प्रेरणा की। दोनों पिता व पुत्र ने मेरी तरफ संकेत करते हुये कहा कि ये बारह व्रत मास्टर साहब को दिला दें। मैंने पूज्य श्री से निवेदन किया कि मैं धर्म के विषय में जानता तो कुछ नहीं हूँ, फिर भी यदि ये लेना नहीं चाहते हैं और मेरी ओर संकेत करते हैं और आप उचित समझते हैं तो ये बारह व्रत मुझे अवश्य देवें । मैंने आचार्य श्री के सामने झोली कर दी। पूज्य श्री ने मुझे बारह व्रत के विवरण का पन्ना देते हुए पूर्णरूपेण समझा कर प्रत्याख्यान कराये। उस समय न तो मैं सामायिक ही जानता था, न धर्म के सम्बन्ध में और कुछ ही जानता था। हाँ, दिगम्बर सम्प्रदाय का आलोचना पाठ व मेरी भावना का पाठ नित्य प्रति किया करता था। आचार्य श्री की प्रेरणा से मैं सामायिक, प्रतिक्रमण, पच्चीस बोल आदि सीख गया। पर्युषण पर्व में बाहर | सेवा देने भी जाने लगा। जब जब आचार्य श्री के दर्शनार्थ उनकी सेवा में पहुंचता, कुछ न कुछ नया प्रसाद मिल ही जाता था। एक सामायिक से पाँच सामायिक तथा अन्य जो भी नियम दिलाये, सबका नियमित रूप से पालन हो | रहा है। पूज्य श्री की कृपा से मैंने बहुत कुछ पाया। आचार्य श्री ने सामायिक व स्वाध्याय का ऐसा बिगुल बजाया | कि मैं ही नहीं जो भी उनके सान्निध्य में आये उनके जीवन में अवश्य ही परिवर्तन हुआ होगा। (१) मेरा जीवन सरकारी नौकरी में लगभग चालीस वर्ष का निकला। मेरी आदत थी कि जो कामचोर अथवा रिश्वत खोर होते चाहे वे अधिकारी हों या अधीनस्थ, मुझे उनसे चिढ़ होती थी, किन्तु आचार्य श्री की प्रेरणा से स्वाध्याय के माध्यम से मैंने समझा कि ऐसे व्यक्तियों के प्रति माध्यस्थ भाव अपनाना ही उपयोगी है ___ सत्त्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवे कृपापरत्वम्। माध्यस्थभावं विपरीतवृत्ती, सदा ममात्मा विदधातु देव॥ मैंने माध्यस्थ भाव को अपनाया और जाना कि जो भी गलत काम करते हैं, वह उनकी अज्ञानता है। उनके प्रति आवेश या क्रोध करना उचित नहीं है। (२) कभी किसी के द्वारा आलोचना या निन्दा सुनकर पहले बहुत रोष आता था, किन्तु आचार्य श्री की देन है|
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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